काव्य में रहस्यवाद
"कविता क्या है?" शीर्पक निबन्ध मे हम कह चुके हैं कि कविता मनुष्य के हृदय को व्यक्तिगत सम्बन्ध के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती है जहाँ जगत् के नाना रूपो और व्यापारो के साथ उसके प्रकृत सम्बन्ध का सौन्दर्य दिखाई पड़ता है। इस सौन्दर्य के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार और जगत् के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत् अनेक-रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इन अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी हो सकता है जब कि उन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत् के भिन्न-भिन्न रूपों और व्यापारों के साथ हो जाय। जब तक यह सामंजस्य पूरा-पूरा न होगा तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि कोई पूरीतरह जी रहा है। उसकी सजीवता की मात्रा अधूरी और प्रसार संकुचित समझा जायगा। अतः काव्य का काम मनुष्य के सब भावों और सब मनोविकारों के लिए प्रकृति के अपार क्षेत्र से आलम्बन या विषय चुन-चुन कर रखना है। इस प्रकार उसका सम्बन्ध जगत् और जीवन की अनेकरूपता के साथ स्वतः सिद्ध है।