काव्य-दृष्टि में जब हम जगत को देखते हैं नमी जीवन का स्वरूप और सौन्दर्य ग्रन्यन होता है। जहाँ व्यक्ति के भावों के पृथक विश्य नहीं रह जाते: मनुष्य मात्र भावों के आलम्बन में हदय लीन हो जाता है जहाँ व्यन्नि-जीवन का लोक-जीवन में लय हो जाता है, वही भाव की पवित्र भूमि है। वहीं विशव-हृदय का आभास मिलता है। जहाँ जगत के साथ हृदय का वरी गगन- जन्य घटित हो जाता है वहाँ प्रवृति और निवृनि मी स्वतः मंगनान्मुग्ला हो जाती है। जो नर के पर. जन्म के अथवा गज- दंड के भय में ही पार ग अपगव नहीं कन्नं : नया जीन्वर्ग के या परजन्म के मुख कलाम से ही कोई शुभ कार्य करते हैं, उनमें हव्य के विकास का अमात्र और जान के मान्दळ की अनुमृति की कमी मनमानी चाहिए।
जीबन का सौन्दर्य वैचित्र्य-यूर्ण है। उसके मातर किसी एक ही मात्र का विधान नहीं है। उसमें एक बार प्रेम. हास. उत्साह और आश्चर्य आदि हैं। दूसरी ओर क्रोध, शोक, वृणा और भय यादि-एक और आलिंगन, मधुरानाप रक्षा, मुख-शान्ति आदि हैं। दूसरी ओर गर्जन, नर्जन, तिरस्कार और मंस । इन दो पड़ों बिना नियामक या गल्गन्मक (Dynamic) सौन्दर्य का पूर्ण पञ्चाश नहीं हो सकता । जहाँ इन दोनों पक्षों में मान्य-साधक-मन्वन्ध रहता है, नहाँ इनमें मामंजन्य दिखाई पड़ता है, वहाँ की उपना और प्रचंडना में मी सौन्दर्य का दर्शन होना है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सौन्दर्य भी मंगल