पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/६५

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६० काव्य में रहस्यवाद संचारी के द्वारा वर्णन करें, तो भी सुननेवाले को ईर्ष्या या लज्जा का अनुभव न होगा। इनकी अच्छी से-अच्छी व्यंजना को भी वह इसी रूप मे ग्रहण करेगा कि "हाँ! बहुत ठीक है । ईर्ष्या या ब्रीड़ा में ठीक ऐसे ही वचन मुँह से निकलते हैं, ऐसी ही चेष्टाएँ होती हैं, ऐसी ही वृत्ति हो जाती है। सारांश यह कि श्रोता या पाठक भाव की व्यंजना का अनुमोदन मात्र करेगा, उस भाव की अनुभूति में मग्न न होगा। पूर्णरस की अनुभूति-अर्थात् जिस भाव की व्यंजना हो उसी भाव में लीन हो जाना—क्यों उत्तम या श्रेष्ट है, इसका भी कुछ विवेचन कर लेना चाहिए । काव्यदृष्टि से जब हम जगत् को देखते हैं तभी जीवन का प्रकृत रूप प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावों के पृथक् विपय नहीं रह जाते, मनुष्य मात्र के भावों के आलम्बनों में हृदय लीन हो जाता है, जहाँ हमारी भाव-सत्ता का सामान्य भाव-सत्ता में लय हो जाता है, वही पुनीत रसभूमि है। आय के साथ वह तादात्म्य, आलम्बन का वह साधारणीकरण, नो स्थायी भावों में होता है, दूसरे भावों में चाहे वे स्वतन्त्र रूप में भी आएँ-नहीं होता। दूसरे भावों की व्यंजना का हम अनुमोदन मात्र करते हैं। इस अनुमोदन मे भी रसात्मकता रहती है, पर उस कोटि की नहीं। आश्रय के साथ तादात्म्य और आलम्बन के साथ साधारणी- करण सर्वत्र व्यंजना की प्रगल्भता और प्रचुरता पर ही अवलम्बित नहीं होता। या तो आलम्बन स्वभावत. ऐसा हो, या उसका