पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/६६

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काव्य में रहस्यवाद ६१ चित्रण इस रूप मे हो, अथवा लोक में उसकी ख्याति ऐसी हो कि वह मनुष्य मात्र के किसी भाव को आकर्षित कर सके तभी पूर्ण रसानुभूति के उपयुक्त साधारणीकरण होगा। अधिकतर कविता स्वभावतः अत्यन्त सामान्य आकर्पणवाले विपयों या आलम्बनों को लेकर होती है। दांपत्य प्रेम या शृंगार की कविता की अधिकता का एक यह भी कारण है कि अत्यन्त सामान्य-रूप में उसका श्रालम्बन-पुरुप के लिए बी, स्त्री के लिए पुरुप-मनुष्य क्या प्राणि मात्र को आकर्षित करता है। उसकी आलम्बनता स्त्री-जाति और पुरुप-जाति के बीच नैसर्गिक आकर्पण की बड़ी चौड़ी नीव पर ठहरी है। यहाँ तक कि वर्णन न होने पर भी उसका आक्षेप सहज मे हो जाता है । दूसरे भावो के आलम्बनों में कुछ विशिष्टता अपेक्षित होती है, पर साधारणीकरण शीघ्र हो जाता है । क्रोध के आलम्बन का साधारणीकरण सब दशाओं में नहीं होता । यह आवश्यक नहीं है कि सर्वत्र आश्रय के क्रोध का पात्र मनुष्य-मात्र के क्रोध का पात्र हो । रौद्ररस में श्रालम्बन का साधारणीकरण पूरा-पूरा तभी हो सकता है, जब कि वह अपनी क्रूरता, अन्याय, अत्याचार आदि के कारण मनुष्य मात्र के क्रोध का पात्र बनाया जा सके। पूर्णरस में लीन करनेवाले वाग्विधान में भी यह वात देखी जाती है कि जहाँ वह धारा के रूप मे कुछ दूर तक चलता है, वहीं पूरी तन्मयता प्राप्त होती है। जहाँ सहृदय और सुकंठ कथा- वाचक सहस्रो श्रोताओं को किसी भाव में बहुत देर तक मग्न