पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४
काव्य में रहस्यवाद

अनुभूति हो रही है। बस, यही हमारा आनन्द ही हमारा निर्णय है। इससे बढ़कर और निर्णय हो क्या सकता है? इसके आगे हम बहुत करेंगे तो उस आनन्द की विवृति करेगे, कि उक्त काव्य का हमारे हृदय पर यह यह प्रभाव पड़ता है, उससे ये ये अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं। यह ठीक है कि दूसरे लोग उसी काव्य से दूसरे प्रकार की अनुभूतियाँ प्रात करेंगे और उन्हे और ही ढंग से प्रकट करेंगे। करे, प्रत्येक सहृदय को अधिकार है कि वह उसके सम्बन्ध में अपनी अनुभूतियाँ प्रकट करे। इस प्रकार एक ही काव्य पर भिन्न भिन्न प्रकार के और कई कला-ग्रंथ तैयार हो जायेंगे। वे सब ग्रंथ उस काव्य से और ही वस्तु होंगे, यह अवश्य है। पर यही आलोचन-कला है। इसके आगे समालोचना जायगी कहाँ?

प्रभाववादी के उपर्युक्त कथन पर यदि कोई कहे तो कह सकता है कि "हमें तुमसे प्रयोजन नहीं; उस काव्य से है। तुम्हारे भीतरी स्वास्थ्य को जानने से हमें उस काव्य के रसानुभव में क्या सहायता पहुंचेगी? तुम्हारी अलोचना तो हमारा ध्यान उस काव्य पर से हटाकर तुमपर और तुम्हारी अनुभूतियों पर ले जाती है।" इस पर शायद वह यह कहे कि "इसी प्रकार तो और ढंग की समालोचनाएँ-निर्णयात्मक (Judicial), ऐतिहासिक (Historical), मनोवैज्ञानिक (Psychological) इत्यादि[१]—भी ध्यान हटाती हैं"। यो यह वाद-प्रतिवाद और


  1. इन सब प्रकार की आलोचनाओं के विवरण के लिए देखिए हमारा "हिन्दी साहित्य का इतिहास" (पुस्तकाकार संस्करण)