कई प्रकार के साहित्यवाद—साहित्य के बाहर के 'वाद' नहीं—हमारे यहाँ भी चले हैं, जैसे रसवाद, अलंकारवाद, ध्वनिवाद रीतिवाद, इत्यादि। बहुत-से बालरुचिवाले चमत्कारवादी कवि भी हुए हैं, और आचार्य भी। नारायण पंडित ने तो यहाँ तक कह डाला है कि—
रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते।
तञ्चमत्कार-सारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतोरसः॥
"जब कि रस में चमत्कार ही सार है, काव्य मे सर्वत्र अनूठापन ही अच्छा लगता है, तब सर्वत्र अद्भुतरस ही क्यो न कहा जाय?" पंडितजी ने इस बात पर ध्यान न दिया कि रस के भेद प्रस्तुत वस्तु या भाव के विचार से किए गए हैं; अप्रस्तुत या साधन के विचार से नहीं। शृंगाररस की किसी उक्ति में, उसके शब्दविन्यास आदि मे जो विचित्रता होगी वह वर्णन-प्रणाली की विचित्रता होगी, प्रस्तुत वस्तु या भाव की नहीं। अद्भुत रस के लिए स्वतः आलंबन विचित्र या आश्चर्यजनक होना चाहिए। शृंगार का वर्णन कौतुकी कवि लोग कभी-कभी वीररस की सामग्री अलंकार-रूप में रखकर किया करते हैं। क्या ऐसे स्थलों पर शृंगाररस न मानकर वीररस मानना चाहिए?
उक्ति-वैचित्र्य या अनूठेपन पर जोर देनेवाले हमारे यहाँ भी हुए हैं और योरप मे भी आजकल बहुत जोर पर हैं, जो कहते हैं कि कला या काव्य में अभिव्यंजना (Expression) ही सब कुछ है; जिसकी अभिव्यंजना की जाती है वह कुछ नहीं।