पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/७१

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६६ काव्य मरहस्यवाद कि जब साधन ही ठीक न होंगे तब साध्य सिद्ध कहाँ से हो सकता है ? प्रभावात्मक आलोचना केवल यही कहती है कि साध्य सिद्ध हो गया है। यदि एक ओर साधन के सम्बन्ध में जो रीति, लक्षण नियम आदि बने हैं उनमें पूर्णता होती और दूसरी ओर आलोचना के समय यदि हृदय लोक-सामान्य भावभूमि पर सदा पहुँच जाया करता-अपनी विशेष प्रकृति से बद्ध न रहता- तो इन दोनों प्रकार की आलोचनाओं में कोई झगड़ा न होता। पर ऐसा प्रायः होता है कि एक का निर्णय दूसरी के अनुमोदन से भिन्न पड़ता है। हृदय और बुद्धि दोनों के साथ साथ चलने से ही इन दोनों का सामंजस्य हो सकता है। सभ्य और शिक्षित समाज में निर्णयात्मक आलोचना का व्यवहार-पक्ष भी है । उसके द्वारा साधन-हीन अनधिकारियो की यदि कुछ रोक-टोक न रहे तो साहित्य-क्षेत्र कूड़ा-करकट से भर जाय । जैसा कि हम पहले कह आए हैं साहित्य के शास्त्र-पक्ष की प्रतिष्ठा काव्य-चर्चा की सुगमता के लिए माननी चाहिए; रचना के प्रतिबन्ध के लिए नहीं। इस दृष्टि से जव हम अपने साहित्य- शास्त्र को देखते हैं तब उसकी अत्यन्त व्यापक और प्रौढ़ व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ती है। शब्द-शक्ति और रसपद्धति का निरूपण तो अत्यन्त गंभीर है। उसकी तह में एक ऐसे स्वतंत्र और विशाल भारतीय समीक्षा-भवन के निर्माण की संभावना छिपी हुई है जिसके भीतर लाकर हम सारे संसार के साहित्य की आलोचना अपने ढंग पर कर सकते हैं।