पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य में रहस्यवाद ६९ "व्यंजना में अर्थात् व्यंजक वाक्य मे रस होता है" यही कहना ठीक है और यही समझा ही जाता है । केशव की यह उक्ति लीजिए- कूर कुठार निहारि तज्यो, फल ताको यहै जो हियो जरई। आजु ते तो कह, बंधु । महा धिक, छत्रिनपै जो दया करई। यह उक्ति ही कविता है ; न कि "परशुराम ने क्रोध किया", यह व्यंग्य अर्थ या अभिप्राय । व्यंजक वाक्य ही काव्य होता है; व्यंग्य भाव या वस्तु नहीं । 'व्यंग्य' शब्द के प्रयोग मे कहीं कहीं गड़बड़ी होने पर भी इस बात को सब लोग जानते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि व्यंग्य अर्थ या लक्ष्य अर्थ का कोई विचार ही नहीं होता। व्यंजक या लक्षक वाक्य का जब तक व्यंग्यार्थ या लक्ष्यार्थ के साथ सामंजस्य न होगा तब तक वह उन्मत्त प्रलाप या जान-बूझकर खड़ा किया हुआ धोखा ही होगा। 'अभिव्यंजना वाद' अनुभूति या प्रभाव का विचार. छोड़ केवल वाग्वैचित्र्य को पकडकर चला है; पर वाग्वैचित्र्य का हृदय को गम्भीर वृत्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं। वह केवल कुतुहुल उत्पन्न करता है। अभिव्यंजना-वाद के अनुसार ही यदि कविता बनने लगे तो उसमे विलक्षण-विलक्षण वाक्यो के ढेर के सिवा ओर कुछ न होना चाहिए-न विचारधारा, न भावों की रस- धारा। पर इस प्रकार की ऊटपटांग कविता योरप मे भी न वनी है, न बनती है। योरप के समीना-क्षेत्र में उठते रहनेवाले वाटो के सम्बन्ध मे यह बात पपी समझनी चाहिए कि वे एकांगदर्शी होते हैं, वे या "