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काव्य में रहस्यवाद


तो प्रतिवर्त्तन (Reaction) के रूप में अथवा प्रचलित मतो से कुछ अपनी विलक्षणता या नवीनता दिखाने की झोंक मे, ज़ोर- शोर के साथ प्रकाशित किए जाते हैं; इससे उनमें अत्युक्ति की मात्रा बहुत अधिक होती है। वे प्रायः अव्याप्ति या अतिव्याप्ति- ग्रस्त होते हैं। अपनी कसौटी पर बिना उनकी कड़ी परीक्षा किए उनका राग अलापना अन्धेपन का प्रचार करना है। 'प्रभाववाद' (Impressionism) और 'अभिव्यंजना-वाद' (Expressi onism) दोनो की एकांगदर्शिता ऊपर के विवरणो से स्पष्ट है। यही स्वरूप वहाॅ के और वादों का भी समझिए।

हमारे यहाॅ के पुराने ध्वनिवादियों के समान आधुनिक 'अभिव्यंजनावादी' भी भाव-व्यंजना और वस्तु व्यंजना दोनो में काव्यत्व मानते हैं। उनके निकट अनूठे ढग से की हुई वस्तु- व्यंजना भी काव्य ही है। इस सम्बन्ध में हमारा यही वक्तव्य है कि अनूठी-से-अनूठी उक्ति भी काव्य तभी हो सकती है जब कि उसका सम्बन्ध -- कुछ दूर का सही -- हृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा। मान लीजिए कि अनूठे भंग्यन्तर से कथित किसी लक्षणापूर्ण उक्ति मे सौन्दर्य्य का वर्णन है। उस उक्ति मे चाहे कोई भाव सीधे-सीधे व्यंग्य न हो, पर उसकी तह मे सौन्दर्य्य को ऐसे अनूठे ढंग से कहने की प्रेरणा करनेवाला रति-भाव या प्रेम छिपा हुआ है। जिस वस्तु की सुन्दरता के वर्णन मे हम प्रवृत्त होंगे वह हमारे रति-भाव का आलम्बन होगी। आलम्बन मात्र का वर्णन भी रसात्मक माना जाता है और वास्तव मे होता है।