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काव्य में रहस्यवाद


है, क्योकि रसकाल के भीतर इनका युगपद् अन्योन्याश्रित व्यापार होता है। रस की स्थिति श्रोता या पाठक मे मानी जाती है। अतः श्रोता या पाठक की दृष्टि से यदि विचार करते है तो उसमे सहृदयता या भावुकता अधिक अपेक्षित होती है; कल्पना-क्रिया कम। कवि की विधायक कल्पना रस की तैयार सामग्री उसके सामने रख देती है। कवि-कर्म में कल्पना की बहुत आवश्यकता होती है; पर यह कल्पना विशेष प्रकार की होती है; इसकी क्रिया कवि की भावुकता के अनुरूप होती है। कवि अपनी भावुकता की तुष्टि के लिए ही कल्पना को रूप-विधान मे प्रवृत्त करता है। रस की प्रतीति पूर्ण व्यंजना होने पर ही, काव्य के पूर्ण हो जाने पर ही, मानी गई है; व्यंजना के पहले नही। अतः कवि अपनी स्वभावगत भावुकता की जिस उमंग में रचना करने मे प्रवृत्त होता है और उसके विधान में तत्पर रहता है, उसे यदि हम कुछ कहना चाहें तो रस-प्रवणता या रसोन्मुखता कह सकते हैं।

जब भाव की उमंग ही कल्पना को प्रेरित करती है तब कवि का मूल गुण भावुकता अर्थात् अनुभूति की तीव्रता है। कल्पना उसकी सहयोगिनी है। पर ऐसी सहयोगिनी है जिसके बिना कवि अपनी अनुभूति को दूसरे तक पहुॅचा ही नहीं सकता। अनुभूति को दूसरे तक पहुॅचाना ही कवि-कर्म है। अतः हम कह सकते हैं कि कल्पना और भावुकता कवि के लिए दोनो अनिवार्य्य हैं। भावुक जब कल्पना-संपन्न और भाषा पर अधिकार रखनेवाला होता है तभी कवि होता है। पर यह भी निश्चय समझना चाहिए