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काव्य में रहस्यवाद

भावो पर चढ़ाई और विजय ऊँचे साहित्य का विधान है। क्रूरता पर क्रोध, अत्याचारियो का ध्वस, पापियो को जगत् के मार्ग से हटाना, मध्यम काव्य का विधान है। वर्ण-व्यवस्था से शब्द लें तो एक ब्राह्मण-काव्य है, दूसरा क्षत्रिय-काव्य ।

इन आदर्शवादियो का कहना है कि आदर्श को सदा सामान्य जीवन-भूमि से ऊँचे रखना चाहिए । ठीक है। जितने आदर्श होते हैं सब सामान्य भूमि से ऊपर उठे हुए होते हैं। पर यह कहना कि उपर्युक्त आदर्श के भीतर ही सौन्दर्य और मंगल की अभिव्यक्ति होती है, काव्य की उच्चता केवल वही मिलती है, मंगल-सौन्दर्य्य तथा काव्य की उच्चता के क्षेत्र को वहुत सकुचित करना है। कोई क्रूर अत्याचारी किसी दीन को निरन्तर पीड़ा पहुंचाता चला जाता है और वह पीड़ित व्यक्ति वरावर प्रेम प्रदर्शित करता और उस अत्याचारी का उपकार साधता चला जाता है, यहाँ तक कि अन्त में उस अत्याचारी की वृत्ति कोमल हो जाती है, वह पश्चात्ताप करता है और सुधर जाता है । यह एक ऊँचा आदर्श है, इसमे सन्देह नहीं । पर इस आदर्श मे केवल दो पक्ष हैं -अत्याचारी और पीड़ित । उस क्रूरता और पीड़ा को देखनेवाले तीसरे व्यक्ति की मनोवृत्ति का मंगलमय सौन्दर्य कहाँ है, इसका अनुसन्धान नहीं है । विचारने की बात है कि दूसरो की निरन्तर बढ़ती हुई पीड़ा को देख-देख अत्याचारियों की शुश्रूषा प्रेम का व्यवहार करते चले जाने मे अधिक सौन्दर्य का विकास है, कि करुण से आद्र और फिर रोप से प्रज्वलित होकर पीड़ितो