प्रकृति पर न सममाना चाहिए; प्रकृति के नाना रूपों के परदे के
भीतर छिपी हुई अनात और अव्यक्त सत्ता के प्रति समझना
चाहिए । वे भरसक इस बात का प्रदर्शन करेंगे कि उनके भावो-
द्गार और उनके वर्णन व्यक्त और पार्थिव के सम्बन्ध में नहीं
हैं, अव्यक्त और अपार्थिव के सम्बन्ध में हैं। समझनेवाले
चाहे जो समझे। यदि कोई वावाजी किसी रमणी के प्रेम
में उसके रूप-माधुर्य्य आदि का बड़े अनूठेपन के साथ वर्णन
करके कहे कि "मेरा प्रेम उसके व्यक्त भौतिक शरीर से-
उसकी रूप-रेखा, वर्ण, चेष्टा आदि से नहीं है, बल्कि उस
भौतिक शरीर के भीतर छिपी अव्यक्त आत्मसत्ता से है, जो
नित्य अनन्त और सर्वव्यापक है," तो कह सकते हैं। पर कहाँ
तक लोग ऐसा समझेगे, यह बात दूसरी है। हाफिज के शराब
और प्याले को सूफी चाहे जो कहें, पर बहुत से पहुंचे हुए विद्वान
उन्हें शराब और प्याला ही मानते है।
बात यह है कि हृदय का कोई भाव यदि व्यंजित किया
जायगा तो वह बात को ही लेकर होगा और गोचर के ही प्रति
होगा ! मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि 'भाव' (Emotion ) के
स्वरूप पर विचार किया जाय, तो उसके अन्तर्गत ज्ञानात्मक अव-
यव का विशिष्ट विन्यास पाया जायगा। उसके बिना भाव का
स्वरूप ही न पूर्ण होगा। यदि यह कहा जाय कि ईश्वर को किसी
ने नहीं देखा है, पर ईश्वर-भक्ति बराबर होती आई है और उसकी
सचाई मे कोई सन्देह नहीं हुआ है, तो इसका उत्तर यह है कि