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पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/९८

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काव्य में रहस्यवाद

गोचर को सामने पा कर अगोचर, अभौतिक आदि की ओर अपना अभिलाष बताता है, जो अभिलाष के वास्तव-स्वरूप के सर्वथा विरुद्ध है। जिस प्रकार पूर्वराग मे आलम्बन अज्ञात नहीं रहता, चित्र आदि द्वारा अंशतः ज्ञात रहता है, उसी प्रकार जिसे रहस्यवादी अज्ञात कहता है वह भी, छाया या प्रतिबिम्ब के द्वारा सही, अंशतः ज्ञात रहता है। पर यदि रहस्यवादी 'अज्ञात', 'अगोचर', 'अभौतिक' का नाम न ले तो उसका 'वाद' कहीं नहीं रह जाता, जो उसे इतना प्रिय है। इस अज्ञात या अभौतिक के कारण उसे अपनी रचना में आडम्बर खड़ा करना पड़ता है, बात-बात में असीम-ससीम का राग अलापना पड़ता है।

अनिर्दृिष्ट और धुंधली झलक या भावना में भी एक विशेष प्रकार का आकर्षण होता है जो स्निग्ध विस्मय, औत्सुक्य या अभिलाष उत्पन्न करता है। घने कुहरे या जाली के बीच किसी के रूपमाधुर्य्य की हलकी-सी झलक मात्र पाकर हम केवल उत्सुक होगे। इसी औत्सुक्य की सतत प्रेरणा से उसका रूप निर्दिष्ट करने के लिए हमारी कल्पना प्रवृत्त रहा करेगी। रहस्यवादी अपनी यही स्थिति बतलाते हैं। वे भी प्रकृति के क्षेत्र से कुछ रूपों को चुनकर उनकी विलक्षण और दूरारूढ़ योजना कल्पना के भीतर करते हैं। अपना यह प्रयत्न वे 'अज्ञात के औत्सुक्य' द्वारा प्रेरित बताते हैं। यहीं तक कहकर रह जाते तो ज्यादः खटकने की बात न थी। इसके आगे बढ़कर वे यह भी सूचित करते हैं कि अपनी दूरारूढ़ रूपयोजना या भावना में वे अगोचर और