बिशेप यह बात जानी गई कि वह गंगा जल छोड़ कर और पानी नहीं पीत था । यह उसकी सब क्रिया हिंदुओं के बश करने को एक महामोहनास्त्र थीं। इसी से उस को परमेश्वर का अवतार तक कहने में हिंदुओं ने संकोच न किया। उस को लोग जगद्गुरु पुकारते थे यह आगे वाले महाराज जसवन्त सिंह के से प्रकट होगा । इस के विरुद्ध औरंगजेब से हिंदुओं का जी कैसा दुःखी था . उस समय राज्य की भी कैसी अवनति थी यह भी इस पत्र ही से प्रकट हो जा यगा हम विशेष क्या लिखें। विदित हो कि इस पत्र के लेखक महाराज जसवन्त सिंह जोधपुर के महारा गज सिंह के द्वितीय पुत्र थे। सन् १६३८ में गज सिंह युद्ध में मारे गए अपने बड़े पुत्र अमर सिंह को अति क्रूर और प्रजापीडक समझ कर गज सिं ने त्याग कर दिया । यही अमर सिंह फिर शाहजहान के दर्बार में रहा और व भी अपनी उद्धतता से एक दिन काम पर हाजिर नहीं हुआ । इस पर शाह ने उस पर जुर्माना किया । जुर्माना अदा करने को सलाबत खां खजानची भेजा । उस का भी अमर सिंह ने निरादर किया। इस पर बादशाह ने उस दरबार में बुला भेजा । यह अति क्रोधावेश में एक कटार लिए हुए दर्वार निर्भय चला गया । बादशाह को कोधित देख कर रोषानल और भी भड़का पहले सलावत का प्राण संहार किया फिर वही शस्त्र बादशाह पर चलाया खम्भे में लग कर कटार गिर पड़ी किंतु उस आघात में बल इतना था कि ख का दो अंगुल पत्थर टूट गया* दरवार में चारों ओर हाहाकार हो गया। पांच ब बड़े मोगल सर्दारों को अमर ने और मारा अंत में उस को उसका साला अर्जु गोरा (बूंदी का राजकुमार ) पकड़ने चला तो उस से भी लड़ा और उसी तलवार से गिरा भी। अब तक तख्त पर लहू की छींट और टूटा हुआ खम् उस के इस बीर दर्प का चिन्ह आगरे के किले में विद्यमान है । लाल किले दरवाजा जिस से अमरसिंह आया था बुखारा दरवाज़ा कहलाता था उस दि
- आनि के सलाबत खां जोर के जनाई बात तोरि धर पंजर करेजे जाय करकी
दिल्ली पति नाह के चलन चलबे को भए गाज्यो राज सिंह को सुनी है बात बर की कहै बनवारी वादशाह के तखत पास फरकि फरकि लोथ लोथन सी अरकी हिन्दुन की हद्द सह राखी तैं अमर सिंह करकी बड़ाई के बड़ाई जमघर की