1 ३१ ] पंपासर का दानपत्र । यह दानपत्र गोदावरी के तीर पर एक खेतवाले को मिला है यह पांच टुकड़ों में अच्छा गहिरा खुदा हुआ कपाली लिपि में पांचो टुकड़े एक तामे को सिकडी में बंधे हुए एक तामे के डब्बे में वन्द और उसी डन्ने में शीसे को भांति किसी वस्तु के आठ टुकड़े और एक चोंगा जिस में सील लंगी हु थी निकला है। अनुमान होता है कि इस घोंग-न कागज रहा होगा जो काल पाकर भीतर ही भीतर गन्न गया है यह पत्र चन्द्रवंशी क्षत्री दो रा- जाओं के दिये सं. १८७ के हैं और इन के पढ़ने से उस काल की बहुत सी चाल व्यवहार और उन के राज्य करने की नीति इत्यादि प्रगट होतो है इस्ले इनका यथास्थित संस्कृत का भाषानुवाद यहां प्रकाश होता है । इस वंश का और कहीं पता नहीं लगा केवल उन दोनों ताम्रपत्रों से जो का- लेपानी से सं. १८५७ में एशियाटिकसोसाइटी में आए थे इन का संबन्ध ज्ञात होता है क्योकि उन में यही लिपि और इन्ही दोनों वंशों का वर्णन है पर नाम अलग अलग है, और उन दोनों में मम्बन्ध भी नहीं है। विजनजवन नामक क्षत्रियों के दो प्राचीन कुल घे जिनको संज्ञा दिया और पुछडिया थी॥१॥ अपने वैरियों का सर्वख धन और धर्म नाश करके और भोग कर के ढदिया वंश समाप्त हुआ ॥२॥ ____पुछडिया कुल के राजा जव दोनों कुलों के स्वामी हुए तब इन्ह लोगों ने प्रना का बड़ा आडम्बर से सत्कार किया और चक्रवर्ती हो गए ॥३॥ विद्या में बड़े बड़े पद और सभाओं में बड़ी वड़ो बक्तृता और आदर के अनेक प्राकाशी चिन्ही से इन के अनुयायो सदैव शोभित रहते घे॥ ४॥ उदार ऐसे कि समाधि मे भी रु. नहीं बचने पाता या चारो ओर केवल जाचक ही जाचक दिखा देते थे ॥५॥ कला निपुण ऐसे थे कि इनके सिवा और कोई थाही नहीं और राज- नीति के छल बल के तो एकमात्र वृहस्पति घे ॥६॥ कहते हैं कि शौरसेन यादव वंश में वलदेव जी से इस वंश की साक्षात. सम्बन्ध है क्योंकि अब तक ये जैसे हली मंद प्रिय भी है ॥ ७ । ये इतने चतुरघे कि और सब जातिके लोग इनके सामने मुर्ख ज्ञात ईते थे और प्रनल भी इतने कि मनकी बात कभी दे हराई नहीं जाती थी॥८॥
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