भूमिका। श्री हरिश्चन्द्र कला की आरम्भिक भूमिका में मैने यह प्रतिज्ञा की थी कि महामान्य गोलोकबासी भारतेन्दु के रचित तथा संगृहीत अन्यान्य विपयों के थक् २ प्रकाशित करूंगा, तथा उसी के अनुसार प्रथगखंड में केवल नाटक, पहसन इत्यादि का संग्रह किया गया और अब इस दूसरे भाग में ऐतिहासिक वपय मात्र प्रकाशित किये जाते हैं। ___ यद्यपि बाबू हरिश्चन्द्र जी का ऐतिहासिक अनुभव इतना अधिक था कि वह किसी एक देश का कोई विशेष इतिहास लिखते तथापि इस ओर उन की रुति ही हुई और कहा करते थे कि देशों के बड़े २ इतिहास बने हुए है उन में 'करने की आवश्यकता नहीं । महामान्य उक्त बाबूसाहिब को सदा प्राचीन था अप्राप्य बस्तुगों की खोज ही और इसी से उन्होंने इतिहास सम्बन्धी 'पयों मे भी प्राचीन तथा अपूर्व संग्रहों का विशेष ध्यान रक्खा । इम भाग में ३ ग्रंथ हैं और उन में एक से एक उत्तम कहे जा सकते है, परन्तु काश्मीर मुम, बादशाहदर्पण, पुरावृत्त संग्रह, रामायण का समय और चरितावली धिक प्रशंसनीय हैं और उन के निर्माण में ग्रंथकार को जो परिश्रम हुआ होगा पह सहजही में पाठकों को विदित हो सकता है। पुरावृत्त संग्रह में अनेक प्राचीन लिपी तथा चरितावली के अन्त में अलभ्य जन्म कुंडलियों का होना क्या साधारण बात समझी जा सकती है, कदापि नहीं। इस स्थान पर मेरा यह कहना अनुचित न होगा वि भारतेन्दुनी के इति- हास सम्बन्धी समस्त लेख तथा संग्रह मुझे अभीतक प्राप्त नहीं हुए । जहां लों हुए मुद्रित किये गौर शेप के परिशोध में हूं क्योंकि बाबू साहिब के सग्रहों हाल सुन २ कर चित्त आकुल हो जाता है कि कैसे और कहाँ से उन को गत १९४५ में जो ऐतिहासिक विषय छप चुके हैं उस के अनन्तर क स्नेह भाजन श्री. वाबू सधाकृष्ण दास जी से "कालचक्र" नाम प्राप्त हुआ है और इमी प्रकार से एक सज्जन के पास दो अल्बम् के सुने गये जिन में शाही फार्सी पत्रों का संग्रह है, अतः उन द्रन्य दे कर दोनों अलबम के लिये गये। देखने पर ज्ञात हुआ कि बहुतेरे पुरातन पत्र निकल गये तथापि इतनी लिपियां उन में है कि का एक असाधारण ग्रन्थ बन सकता है । एक मित्र ने मुझ से
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