इसी कारण इन में कोई सत्य इतिहास नहीं मिल सकता । कतुंग हत "बंध चिन्तामणि" और गजशेखरकत " चतुर्विशति प्रबंध" में लिखा है कि महाराजा विक्रमादित्य अति शू वीर और महाबन्न पराक्रान्त नृपति थे परन्तु मन में नवरत्न और कान्तिदास आदि कवियों का कुछ भी वृतान्त नहीं न्ति रखा है। ___ जैन ग्रन्यों में लिगना कि सिद्धसेन नामक जैनपुरी हित विक्रमादित्य के उपदेष्टा थे परन्तु हम नहीं कह सक्ते कि यह बात कहां तक शुद्ध है पौर एक जैन लेखक कहते कि ७२३ संवत में भोजराज के राज्य में व- हुत से लोग उज्जयिनी नगर में जा बसे थे यह और वृद्ध भेज दोनों जैनम. तावलंबी थे ये सब वृत्तान्त जैन अन्यों से ज्ञात होते है। और २ संस्कृत अन्यों में ये सब प्रमाण नहीं मिलते। बहभोज मनांतुग सूरि के शिष्य थे सनांतुग, और वाण, मयुर भट्ट के समकालिक जैनाचार्य थे। वाणलत हर्षचरित पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्हों ने सन ७०. ईसवी में श्रीकंठाधिपति हर्षव- ईन के साथ भेट किया था यही कान्यकुलाधिपति हर्ष वर्धन शिलादित्य थे और इन्हीं के सभा में हियांग सियांग नामक चैनिक परिबांजक बुन्ताए गए थे। वाण कवि ने नियांग सियांग के अन्य को पाठ करके अपना ग्रन्य बनाया हर्षवईन के माय चैनिकाचार्य के भेट का वृत्तान्त हर्षचरित्र में "यवन प्रोक्त पुराण" नामक ग्रन्थ में लिया गया है। महर्षि कन्वापने "कथा सरित्सागर" के १८ वें अध्याय में नरवाहन दत्त को विक्रमादित्य का उपन्याम कहा है उम में लिखा है कि विक्रमा- दित्य सन् ५.. ईसवी में उज्जयिनो में राज्य करते घे नरवाहन दत्त, जैन प्रन्य, कथा मरितमागर, और मस्यपुराण के मतानुसार शतानिक के पौत्र थे नामिका में एका पत्थर को चट्टान मिली है जिस पर विक्रमादित्य का नाम लिखा है और उन को नभाग, नहुष, जन्म जय, ययाति और वलराम के नाई योड़ा वर्णन किया । पाठक जनों को देखना उचित है कि एक विक्रमादित्य के इतिहास में कितनी गडबड़ है, लोगों में जी कवन्न एकही विक्रमादित्य प्रमिद्ध है हम समय के भारतवर्षीय इतिहासो में कई एक वि- कादियों के नाम मिले है परन्तु हम को उप्त विक्रमादित्य का इतिहास जात होना अवश्य का है जिस से हम लोगों का सन्देह दूर हो और यह जान पडे कि नबरनों की प्रसत्त्वरत्न कवि चक्रचुडामगि कालिदास का वि- मादित्य से कुछ एरन ध है वा नहीं।
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