से कंठस्थ होने का अभ्याम था कहता कि यह पुराने प्राशय का श्लोक है और आप भी पट के सुना देता था इस के अनन्तर वह मनुष्य जिस को दो बार सुनने कंठ हे जाता था पढ़ के सुनाता और दूमी प्रकार वह मनुथ जिम को तोन वार और वह भी जिस को चार वार,के सुनने से कंठस्थ होने का अभ्यास था क्रम से सब गजा को कंठाग्र सुना देते इस कारण परदेशी विहान अपने प्रयोजन से रन्ति हो जाते थे और इस बात की चर्चा देश शांतर में फैली सो एक विहान ऐसा देश काल में चतुर और बुद्धिमान या ति उसके बानाये हुए भाशय के इन चार मनुष्यों को भी अंगीकार करना पड़ा कि यह नवीन प्राशय है और वह श्लोक यही है। श्लोक। राजन् श्रीभोजरान विसुवनविजयी धार्मिकस्त पिताऽभूत । पित्रा तेन हौता नवनवतिमिता रत्नकोटिर्मदीया ॥ तां त्व देहि त्वदौयै स्मकल बुध वरै जयते वृत मेत। लोचेज्जानंतितेवैनवकृतमथ वा देहि लक्षं ततो मे ॥ १ ॥ हे राजा भोज तीनों लोक के जीतने वाले तुम्हारे पिता वडे धर्मिष्ट हुए हैं उन्हों ने मुझ से निन्नान किरोड रत्न लिया है सो मुझे आप दीजिये और इस वृत्तांत को तुम्हारे सभासद विद्वान जानते होंगे उनसे पूछ लीजिये जो वह कहें कि यह आशय केवल नवीन कविता मात्र है तो अपने प्रण के अ- नुसार एक लाख रुपया मुझे दीजिये। इस प्राशय को मुनकर चार विहानों ने विचारांश किया कि जे इसको पुराना प्राशय ठहरावें तो महाराज को निन्नानवे किरोड द्रव्य देना पड़ता है और नवीन कहने में केवल एक लाख मो उन चारों ने क्रम से यही कहा कि पृथ्वीनाय यद नबीन आशय का श्लोक है इस पर राजा ने उस विहान को एक लाख रुपया दिया। श्री रामानुज स्वामी का जीवन चरित्र । दक्षिण में पूर्व सागर के पथिम तट से बारह कोस दर तोडोर देश में भूतपुरी नामक नगरी है। वहां हारीत गोत्र केगर नामक एक माह्मण रहते थे। यह सन्तान होनने के कारण बहुत दुखी रहा करते । एक बैर
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