[ २. ] स्वामी उन के उपदेशानुमार रन्तपत्तन प्राण और विधिपूर्वक पंच सं- स्कार दीक्षित होकर संस्कृत और द्राविड भाषा के अन्य सरहस्य पूर्णाचार्य पढे । कुछ काल पीछे एक कुंए में से जल निकालती समय पूर्णाचार्य को ल्वी से और खामी की स्त्री से कुछ कलह हो गई इस से स्वामी रक्षका- स्वा से उदास हो गए। एक यही नहीं अनेक समय में रक्षकाम्बा के खर तर स्वभाव का परिचय मिन्नने से खासी का जो उस की ओर से खींच गया था इस से खामी उन को नैहर भेज दिया। और आप भी सव धन उह आदि का त्याग कर त्रिदण्ड सन्यास ग्रहण किया । कांचीपूर्ण ने इस पर प्रति प्रसन्न होकर 'यतिराज' की खामी को पदवी दिया । कुछ दिन पीछे खामी के भांजे दाशरथि और अनन्तभट्ट के पुत्र कूरनाथ यह दोनों पाकर कांची रहने लगे और स्वामी से विद्या पढ़ने लगे । एक समय यादव पंडित कांची आए और शंख चक्र से स्वामी का कलेवर चिन्हित देख कर बडा आक्षेप किया। इस पर स्वामी की इच्छा से करनाथ वे शास्त्रा- थं पूर्वक स्वमत स्थापन करके यादव को निरुत्तर कया । यादव पंडित ने सो ज्ञान पाकर त्रिदड ग्रहणपूर्वक ग्रहस्थाश्रम का परित्याग किया और दीक्षित होकर गोविन्ददास यह नाम पाया। इन्ही गोबिन्ददास ने 'यति- धर्म समुच्चय' नामक ग्रन्थ बनाया है। कुछ काल के पीछे यामुनाचार्य के पुत्र वररंग स्वामी रामानुज को लेने को हस्तिगिरि आए। यहां उन्हों ने नाटकों का अभिनय दिखला कर श्री वरदराज जी को मांगा और वहां से रामानुज स्वामी को ला कर रंग नाथ जी की सम्पर्ण किया जिस से खामी अव रंगनाथ जी की सेवा का अधि. कार और उस संप्रदाय का प्राचार्यत्व दोनों के अधिकारी हुए । ___ उसी समय में स्वामी के ममेरे भाई वेंकट गोविन्द पंडित से जो कि वडे शैव घे वेंकटगिरि के निवासी श्री शैलपूर्ण नामक वैष्णव यति से बड़ा भारी प्रास्त्रार्थ हुभा । जिस में गोविन्द पंडित ने पराजय पाकर श्री शैल- पूर्ण का शिष्यत्व अंगीकार किया । कुछ दिन पीछे पूर्णाचार्य के उपदेश से स्वामी रामानुज अठारह मेर
- दो। अर्ध पुंड मुद्रा बहुरि, माला मंत्र विचार ।
संसकार ए वैणवो, धर्म कर्म को मार ॥१॥