[ २३ ] जिस की रेखकर स्वामी को तदनुसार भाष्य वनाना बहुत आवश्यक था। शारदापीठ के सब पंडितों को खामी ने शास्त्रार्य में पराजित किया । जब वहां से लौटे तो बौधायन वृत्ति की पुस्तक स्वामी के साथ थी । किन्तु शा. ग्दापीठ का पंडितों ने देष करके रात को डाका डाला और वह पुस्तक लूट ले गए । खामी को इस से बडा दुःख हुआ। तव कूरेश ने कहा कि आप इतना दुःख क्यो महते । एक वर मै आद्योपान्त उस पुस्तक को खा है इस से उस के प्रति अक्षर मुझ को कंठाग्र है मैं सब आप को लिख दूंगा तदनुसार एक तिधर करेशन ने बौधायन सत्र हत्ति सव स्वामी को लिख दी। इसी हत्ति के अनुसार खामी ने वेदांत सत्र पर श्रीभाप्य वेदान्त दीप, वेदान्तसार, वेदार्थसंग्रह, और गीताभाप्यादि ग्रन्य बनाए । इन न्यों के बनाने के पीछे बहुत से शिष्य को साथ लेकर स्वामी दिग्वि- जय करने निकले । क्रम से चोलमंडल, पांड्यमंडल कुरुक इत्यादि देशों में जाकर वहां के पंडितों को शास्त्रार्थ में जीतकर उन को वैष्णव धर्म से दी- चित किया और कुरंगदेश के राजा को दीक्षित करक केरल देश के पंडितों को जीता। वहां से कम से हारका मथुरा सालग्राम काशी अयोध्या बदरि- काश्रम नैमिषारण्य और श्रीवृन्दावन आदि तीर्थों में होते हुए फिर से शा. रदापीठ गए। वहां सरखती प्रत्यक्ष होकर "कप्यास्य" इस श्रुति का तात्पर्य पछा। स्वामी ने जो अर्थ कहा इस से प्रसन्न होकर सरखती ने श्री भाष्य अपने सिर पर चढ़ाकर स्वामी को दिया और उन का दोनों हाथ पकड कर “ भाष्यकार" नाम से पुकारा । इस के अनन्तर स्वामी ने वहां के पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित करके पुरुषोत्तम क्षेत्र गमन किया। वहां जाकर देखा कि वौद्ध और कपालिक लोग पुरषोत्तम की सेवा में नियुक्त है। खामी ने उन को जीतकर वैष्णव गण सेवा में नियुक्त किए और वहां रामा- नुज मठ बना कर रहने लगे । स्वामी की इच्छा थी कि पंचरात्र के विधि से जगन्नाथ जी की सेवा हो परन्तु पंडे लोग अपने मन से सब काम करते थे और श्री जगन्नाथ जी भी इमी से प्रसन्न थे। क्योंकि जव स्वामी ने इस बात त्रितिय विशिहा देश है, तामधि तीन प्रमान ॥१॥ प्रगट लोक मत तोक मैं, दुतिय बेदमत जान । त्रितियमंतमतकरतजिहि, हरिजनअधिकपमान ॥ २ ॥
पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/२३८
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