[ ३८ ] पाया वरच दानादिक देकर उनका बड़ा भादर किया। विदा की समय भी उनमो बड़े सवाार से अच्छी बिदाई देकर विदा किया और दाजा के दो नौकार साथ कर दिये कि अपनी सरहद तका उनको पहुंचा आवे । लार्ग से राजा के अनुचर ने उन चोरों से पूछा कि इन साधू जी ने और लोगों से विशेष आप का आदर क्यों किया। इस पर उन चाण्डाल चोरों ने यह उत्तर दिया कि जयदेव जो पहिले एक राजा क यहां रहते थे , इन्हों ने कुछ ऐसा दुष्कर्म किया कि राजा ने इस लोगों को इन को प्राण हरने की अाज्ञा दिया किन्तु दया परवश हो कर हम लोगों ने इनके प्राण नहीं लिए केवल हाथ पैर काटके छोड़ दिया इसी बात को छिपाने के हेतु ज- यदेव ने हम लोगों का इतना आदर किया। कहते हैं कि मनुष्यों को आ- धारभूता पृथ्वी इस अनर्थं मिघ्यावाद को न सह सकी और विधा विदीर्ण हो गई । वे चोर सब उसी पृथ्वीगर्त में डूब गए और पमेश्वर को अनुग्रह से जयदेव जी के भी हाथ पैर फिर से यथावत् हो गए। अनुचरों के द्वारा यह बृत्तान्त सुन कर और जयदेव जी से पूर्ववत्त जान कर राजा अत्यन्त ही चमत्वात हुआ । आश्चर्य घटना अविश्वासी विद्वानों का मत है कि जय देव जी ऐसे सहृदय थे कि उनके सहज स्खलाव पर री भाकार लोगों ने यह गल्प कल्पित कर ली है। ___ तदनन्तर जयदेव जी ने अपनी पत्नी पद्मावती को भी वहीं बुला लिया। कहते हैं कि एक बेर उस राजा की तानी ने ईर्षा व श पावती की परीक्षा करने को उस से कह दिया कि जयदेव जी मर गए। उस समय जयदेव जी राजा के साथ कहीं बाहर गए थे। पतिपाणा पक्षावती ने यह सुनते हो पाण परित्याग कर दिया । जब जयदेव जी आए और उन्हों ने यह च- रित देखा तो श्री कृष्ण नास सुनाकर उसको पुनर्जीवन दिया किन्तु उसने उठकर कहा कि अब आप हमको आज्ञा ही दीजिए हमारा इसी से कल्या- ण है कि हम आप के सामने परमधाम जायं और तदनुसार उसने फिर श- रीर नहीं रक्खा । जयदेवजी इससे उदास होकर अपनी जन्मभूमि कोंदुली ग्राम में चले आए और फिर यावत् जीवन वहीं रहे। श्री जयदेव जी के गोतगोबिंद के जोड़ पर गोतगिरीश नामक एक काब्धा बना है किन्तु जो बात इस में है वह उस से सपने में भी नहीं है। गीतगोबिंद के अनेक टीकाकार भी हुए हैं यथा उदयन जो खास
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