[ ३९ ] गोवईनाचार्य का शिष्य था और जयदेव जो से भी कुछ पढ़ा था एक टीका उस को बनाई है और पीछे से अनेक टोका बनी हैं । उदयन की टीका जयदेव जी को समय में बन चुकी थी और इस में भी कोई संदेह नहीं कि गीतगोविंद जयदेव जी के जीवन काल हो से सारे संसार में प्रचलित हो गया था। गीतगोबिंद दक्षिण में बहुत गाया जाता है और वाना जो में सोढ़ियों पर द्राविड़ लिपि में खुदा हुअा है। श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय में इस का विशेष भाव है वञ्च आचार्य के पुत्र गोसाई विट्ठलनाथ जी की इस के प्रथम श्रष्ट पदो पर एक रम मय टोका भी बड़ी सुन्दर है जिस में द- शावतार का वर्णन शृङ्गार परत्व लगाया है । वष्णवों में परिपाटी है कि अयोग्य स्थान पर गीतगोबिंद नहीं गाते क्योंकि उन का विखास है कि जहां गोतगोविंद गाया जाता है वहां अवश्व भगवान का प्रादुर्भाव होता है । इस पर वैष्णवों में एक आख्यायिका प्रचलित है। एक बुढ़िया को गोतगो- बिंद को “ धीर समोर यमुना तोर" यह अष्टपदी याद थी। वह बुढ़िया गोदईन के नोचे किसी गांव में रहती थी। एक दिन वह बुढ़िया अपने बैं- मन के खेत में पेड़ों को सींचती थी और अष्टपदी गाती थी इस से ठाकुर जी उस के पीछे पोछे फिरे । श्रीनाथ जी के मंदिर में तीसरे पहर को जब उत्था- पन हुए तो थी गोसाई जी ने देखा कि श्रीनाथ जी का बागा फटा हुआ है और बैंगन के कांटे और मिट्टो लगी हुई है। इस पर जब पछा गया तो उत्तर मिला कि अमुक वुढ़िया ने गीतगोबिंद गाकर हम को बुन्ताया इससे कांटे लगे क्योंकि वह गाती गाती जहां जहां जाती थी मैं उस के पीछे फिरता था। तब से यह शाज्ञा गोसाई जी ने बैष्णवों में प्रचार या कि कु- स्थान पर कोई गोतगोबिन्द न गावे । किम्बदन्ती है कि जयदेव जी प्रति दिवस श्रीगंगा स्नान करने जाते थे। उन का यह प्रम देख कर गंगा जी ने कहा कि तुम इतनी दर क्यों परिश्रम करते हो हम तुम्हारे यहां पाप आवेंगे । इसी से अजयनद नामक एक धार में गङ्गा अब तक केदुखी के नीचे बहती हैं। जयदेव जी विष्णु खामी सम्प्रदाय में एक ऐसे उत्तम पुरुष हुए हैं कि सम्प्र- दाय को मध्यावस्था में मुख्यत्व करके इन का नाम लिया गया है। यथा- विष्णु खामिसमारम्भां जयदेवादिमध्यगां। श्रीमद्वल्लभपर्य्यन्तांस्तुमोगुरुपरम्पराम् ॥१॥ जयदेव जी का पवित्र शरीर केंदुलो ग्राम में समाधिस्थ है। यह समाधि
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