और एक मनुष्य बहुत व्याकुल पड़ा था उस मनुष्य को अति व्याकुल देख कर उस कवि ने एक दोहा पढ़ा। दोहा-किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर की पीर । किधौं सूर को पद सुन्यौ, जो अस बिकल शरीर ॥ इस वार्ता के लिखने का यह अभिप्राय है कि निस्सन्देह इन के पदों में ऐमा एक असर होता कि जो लोग कबिता समझते हैं उन के जो पर इसकी चोट लगे। __ ये जाति के ब्राह्मण थे और इन के पिता का नाम बाबाराम दास जी था जो गाना बहुत अच्छा जानते थे और कुछ धुरबपद इत्यादि भी बनाते थे और देहती या आगर या मथुरा इन्हीं शहरों में रहा करते थे और उस समय के नासी गुनियों में गिने जाते थे उनके घर यह सरदास जी पैदा हुए यह इस असार संसार के प्रपंच को न देखने के वास्ते आँख बंद किए हुए थे इन के पिता ने इन को गाना सिखाने में बड़ा परिश्रम किया था और इनकी बुद्धि पहिलेही से बड़ी विचक्षण और तीन थी संवत् १५४० के कुछ न्यूना- धिक में इन का जन्म हुआ था और आगरे में इन्होंने कुछ फारसी विद्या भी सीखी थी इनकी जवानो हो में इन के पिता का परलोक 'हुप्रा और यह अपने मन के हो गए और भजन तभी से बनाने लगे उस समय में इनके शिष्य- भी बहुत से हो गए थे और तब यह अपना नाम पदों में सूर खासी रखते थे उन्ही दिनों में इनने महाराज नल और दमयन्ती के प्रेम की कथा में एक पुस्तक बनाई थी जो अब नहीं मिलती । उस समय इनकी पूर्ण युवा अवस्था थी। और उन दिनों में ये आगरे से नौ कोस मथुरा के रास्ते के बीच में एक स्थान जिसका नाम गऊघाट है वहीं रहते थे और बहुत से इन के शिष्य इनके साथ थे फिर ये आचार्य कुल शिरोरत्न श्री श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु के शिष्य हुए तब से यह अपना नाम पदों में सूरदास रखने लगे ये भजनों में नाम अपना चार तरह से रखते थे सूर, सरदास, सूरजदास, और सूरश्याम, जब यह सेवक हुए थे तब इन्हों ने यह भजन बनाया था । अजन-चकई री चलि चरन सरोवर, जई नहिं प्रेस बियोग । जहं श्चम निसा होत नहिं कबहू सो सागर सुख जोग ॥ १ ॥ सनक से हंस मीन शिव मुनि जन नख रबि प्रभा प्रकास । प्रफुलित कमल निमेषन ससि डर गुंजत निगम सुवास ॥२॥
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