[ ६७ 1 दनिमग्न दिगङ्गनाविख्यातयशोराशि प्रसिद्ध महा पण्डितयर्य श्रीयुत का- शीनाथ शास्त्री जी के जिन के नाम श्रवणमात्र खे सहृदय पंडिसवर समूह गद्गद होकर सिर डुलाते हैं स्वाधीन कर दिया और इन के प्रतिभा का अत्यन्त वर्णन करके कहा कि मैं यह एक रत्न आप की पारितोषिक देता हूं जो श्राप के सुविस्तीर्ण शाखाकांडमंडित कुसुमचयाकीर्ण यशोवृक्ष को अपनी यशशन्द्रिका से सदा अग्लान और प्रकाशित रक्खेगा। फिर इन्हीं ने उक्त महाशय के पास व्याकरणादि विविध शास्त्र पढ़ कर चित्रकूट में जाकर उत्तम २ पंडितों के साथ विप्रतिपत्तियों में प्रत्युत्तम प्रतिष्ठा पाई और श्रीमन्त विनायक राव साहेव ने बहुत सन्मान किया। फिर जव संस्कृतादिक विविध विद्या कलादिगुणगण मंडित श्री मान जान म्यर साहब श्री काशी में आए और पाठशाला में विविध विद्या पारंगम पण्डिततुल्य विद्यार्थियों की परीक्षा लीतब उस शास्त्री जी महाशय के विद्यार्थिगण में इन की अद्भत प्रतिभा और अनेक शास्त्रीपस्थिति देख प्रसन्न होकर केवल इस अभिप्राय से कि ऐमे उत्तम पण्डि रत्न का अपने पास रहना यशस्कर है और प्राजिमगढ़ के जिले में उक्त साहेच महाशय प्राहिवाक थे इम लिये कहीं कहीं हिन्दू धर्म शास्त्र के अनुसार निर्णय करने के विमर्श में ओर उन को बनाई हुइ अनेक सुन्दर सुन्दर कविता के परिशोधन में सहायता के लिए इन को अपने साथ ले गए। उन के साथ पांच चार वर्ष के लगभग रह कर ग्वालियर में गए, वहां बहुत से उत्तमर पण्डितों के साथ शास्त्रार्थ में परम प्रतिष्ठा और राजा की ओर से अत्यु तम सन्मान पूर्वक विदाई पाकर संवत् १८१२ के वर्ष में काशी में पाए तव यद्यपि विधवोहाहप्रशासमाधि अर्थात् पुनर्विवाह खण्डन श्रीमान् परम गुरू श्री काशीनाथ शास्त्री जी तैयार कर चुके थे तथापि उस को इन्हों ने अपूर्व २ अनेक शंका और समाधानों से पुष्ठ किया इसी कारण उक्त शास्त्री जी महाराज ने अपने नाम के पहिले इन्हीं का नाम उस ग्रन्य पर लिख कर प्रसिद्ध किया संवत् १८१२ के वर्ष में श्रीमान् यशोमात्रा विशेष वालण्टेन साहेव महाशय ने सांख्यशास्त्राध्यापन के कार्य में इन को नियुक्त किया। उस कार्य पर अधिष्ठित होकर सपरिश्रम पाठन आदि में अनेक विद्यार्थियों को ऐसे व्युत्पन्न किया जिनकी सभा में तत्काल अपूर्व कल्पनाओं को देख कर प्राचीन प्रतिष्ठित पण्डित लोग प्रसन्न हो कर श्लाघा करते थे। संवत् १९२. के वर्ष में राजकीय श्री संस्कृत पाठशालाध्यक्ष श्रीमान् ग्रिफिथ साहेव
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