पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/७८

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पर जब हनुमान जी ने रावण के मन्दिरों को जा कर देखा है तो उस में भोजन से अनेक प्रकार के धातुओं के मणियों के और कांच के पात्रों को भी देखा है। चिमचा कांटा आदि भी उस समय होता था और बड़ी शोभा से खाना बुना जाता था। और भी अगरेजी चाल के पात्र और गहने भुवनेश्वर के मन्दिर में भी बहुत प्राचीन काल के बन हैं बाबू राजेन्द्र लाल मित्र का उड़ीसा अथस आग देखो। __ इसी स्थान में अशोक बन में जानकी जी के शिंशिया के दरख्त के नीचे रहने का वर्णन है। हिन्दुस्तान के बहुत से पण्डितों का निश्चय है कि शिं शिपा शीशम वृक्ष को कहते हैं। किन्तु हमारी बुद्धि में शिशिपा सीताफल अर्थात् शरीफ के वृक्ष को कहते हैं । इस के दो बड़े भारी सबूत हैं । प्रथम तो यह कि यदि जानकी जी से शरीफ से कुछ संबंध नहीं तो सारा हिन्दुस्तान उस को सीता फल क्यों कहता है। दूसरे यह कि महाभारत के आदि पर्व में राजा जन्मे- जय के सर्पयज्ञ की कथा में एक श्लोक है जिस का अर्थ यह है कि आस्तीक की दोहाई सुन कर जो सांप न हट जायगा उसका सिर शिंश वृक्ष के फल की तरह सौ टुकाड़े हो जायगा * शिंश और शिंशपा दोनों एकही वृक्ष के नाम हैं यह कोषों से और नामों के सम्बन्ध से स्पष्ट है। शीशम के वृक्ष में ऐसा कोई फल नहीं होता जिस में कि बहुत से टुकड़े हों। और शरीफ का फल ठीक ऐसाही होता है जैसा कि श्लोक में लिखा है। इस से लोग निश्चय करें कि सीता जी शदीफ़ ही के वृक्ष के नीचे थीं। १८ वें सर्ग के १२ श्लोक में गुलाब पांश का वर्णन है इसलिए हमारे भाई लोग यह न समझे कि यह निधि हम को मुसल्मानों से मिली है, यह हिन्दु- स्तान ही की पुरानी वस्तु है। ३० वें सर्ग के १८ श्लोक में लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य प्रायः संस्कृत बोलते थे किन्तु जब छोटे लोगों से बात करते थे तो ये संस्कृत से नीच भाषा में बोलते थे, इससे बहुत लोगों का यह कहना कि संस्कृत कभी बोलीही नहीं जाती थी खंडित होता है। हां इसमें कोई सन्देह नहीं सब से इसको काम में नहीं लाते थे।

  • आस्तीक बचनं श्रुत्वायः सर्पोन निवर्तते ।

शतधाभिद्यतेमूर्धा शिंशिवृक्ष फलंयया ॥