पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१३१

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3 १२ पूर्णिया जिले की ही घटना है । सो भी उसी सन् १६३५ ई० की। यह सन् १६३५ किसान-सभा के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसी साल पहले पहल बिहार प्रान्तीय किसान-सभा ने जमींदारी-प्रथा के मिटाने का निश्चय नवम्बर महीने के अन्त में हाजीपुर में किया था। प्रान्तीय किसान कान्फ्रेंस का चौथा अधिवेशन वहीं हुआ था। मैं ही उसका सभा- पति था। उसी साल उसी नवम्बर महीने में ही हाजीपुर के अधिवेशन के पहले ही, जहाँ तक याद है, ११,१२ नवम्बर को धर्मपुर परगने के राजनीतिक-सम्मेलन और किसान-सम्मेलन बनमनखी में ही हुए थे। पहले सम्मेलन के अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह और दूसरे के बाबू श्रीकृष्ण सिंह थे। यही दोनों सज्जन पीछे कांग्रेसी-मंत्रिमंडल के जमाने में अर्थ- मंत्री और प्रधानमंत्री विहार प्रान्त में बने थे। इसी भविष्य की तैयारी में जो अनेक बातें होती रहीं उन्हीं में वे दोनों सम्मेलन भी थे। हमें भी वहीं से निमंत्रण मिला था। यह भी प्राग्रह किया गया था कि यदि किसी अनिवार्य कारण से कदाचित् हम न पा सकें तो किसान सभा के किसी नामी-गरामी लीडर को ही भेज दें। मगर हमने जान-बूझ के दो में एक भी न किया । न खुद गये और न किसी को भेजा ही। इसके लिये वहाँ के साथियों से क्षमा मांग ली अपनी मजबूरी दिखा के। बात दरअसल यह थी कि अब किसान-सभा ने जड़ पकड़ ली थी। उसकी आवाज अब कुछ निडर सी होने लगी थी। वह अब किसानों की स्वतंत्र अावाज उठाने का न सिर्फ दावा रखती थी, बल्कि हिम्मत भी । इसलिये कांग्रेसी लीडरों में उसके खिलाफ कानासो होने लगी थी। भीतर भीतर से विरोध भी हो रहा था । लोग समझते थे कि हमारे जैसे कुछ इने-गिने लोग ही यह तूफान खड़ा कर रहे हैं । नहीं