. किन्तु हमें उससे गर्ज ही क्या है ? वे मेरे खर्च के बारे में अन्दाज लगाते रहें कि कौन देता है । जो किसान उन्हें और दुनियों को देता है वही मुझे क्यों न दे यदि मैं उसीका काम करने जाऊँ ? उसे विश्वास होनाः चाहिये कि मैं उसके लिये मरता हूँ या उसके दुश्मनों के लिये, और यह विश्वास उसे है यह मेरा यकीन है । तब और चाहिये क्या है और अगर मैं उस किसान की आशा छोड़ पैसे के लिये औरों का, जो प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके शत्रु ही हो सकते हैं, मुँह देखू तो मुझ-सा. धोखेबाज और पापी कौन होगा ? यदि किसान-सभा भी ऐसा करे तो वह किसानों की सभा हर्गिज नहीं हो सकती है, ऐसा मैं मानता हूँ। हाँ, तो जहानाबाद से पहले दिन अलगाना और दूसरे दिन धनगाँवा जाना था। ये दोनों गाँव जहानाबाद से पूर्वोत्तर और पूर्व है । कभी हरे- भरे थे। मगर अब वीरान हैं। उन गांवों में जाँच के सिलसिले में जो बातें मालूम हुई उनका वर्णन हमें यहाँ नहीं करना है और न दूसरे गाँवों का ही। 'करुण कहानी में ये सभी बातें लिखी हैं। मगर दो एक घटनायें ऐसी हैं जिन्हें यहाँ लिख देना है । कहते हैं कि जीव एक दूसरे को खा के ही कायम रह सकते हैं "जीवो जीवस्य जीवनम् ।" अलगाना में टेकारी की जमींदारी के एक पटवारी हमें मिले । वह किसानों के साथ लगान की वसूली में खूब सख्ती करते थे। फिर भी कबूल करने को तैयार न थे। एक दिन बातों बात में वे बोल बैठे कि टेकारी की ही जमींदारी में किसी और मौजे में रहते हैं । बकाया लगान में जमीन नीलाम हो गई, तो यहाँ नौकरी करने लगे। पूछने पर यह बात भी उनने कबूल की कि लगान एक तो ज्यादा था । दूसरे फसल भी मारी गई लगातार । इसीलिये चुकता न कर सके जिससे खेत नीलाम हो गये। मगर अलगाना में वे खुद दूसरों की जमीन नीलाम करवाने में लगे थे और इस तरह अपनी जीविका चलाते थे। असल में जमींदारी की मैशीन के लिये तेल का काम ये उजड़े किसान ही करते हैं। वही इसे चलाते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त हमें वे पटवारी साहब मिले । इसीलिये जान-बूझ के किसानों को तबाह किया जाता है। .
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