पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१६

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पूर्व सरकार ने समय-समय पर सर्वे कराकर लगान भी बढ़ा दिया था। जब उसे न दे सकने के कारण किसानों को जमीन-जायदाद साहुकारों के हाथों में धड़ाधड़ जाने लगी तो उनने विद्रोह शुरू किये । फलतः सरकारी जाँच कमिशन कायम हुया और उसी की रिपोर्ट पर दक्षिणी किसानों को सुविधाएँ देने का कानून बनाया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकार और महाजनों से किसान इसीलिये बिगड़ पड़े कि उनकी जमीनें छिनी जा रही थीं।

कहा जाता है कि बम्बई प्रेसिडेन्सी में जमींदारी प्रथा है नहीं, वहाँ जमींदार हैं नहीं । रैयतवारी प्रथा के फलस्वरूप वहाँ किसान ही जमीन के मालिक हैं। मगर दरअसल अब यह बात है नहीं। वहाँ भी साहुकार-जमींदार कायम हो गये हैं और असली किसान उनके गुलाम बन चुके हैं। यह साहुकार-जमींदारी शुरू हुई थी १८४५ में ही, जब किसानों की जमीनें महाजन कर्ज में छीनने लगे। किसानों के विद्रोह भी इसी छीना झपटी को रोकने के लिये होते रहे। आज तो रैयतवारी इलाके का किसान इसी के चलते जमींदारी प्रान्तों के किसानों से भी ज्यादा दुखिया है । क्योंकि उसे कोई हक हासिल नहीं हैं, जब कि जमींदारी इलाके वालों ने लड़ते-लड़ते बहुत कुछ हक हासिल किया है। इसीलिये दक्षिणी विद्रोह के जाँच कमिशन की रिपोर्ट में मिस्टर आकलैण्ड कौलचिन ने लिखा है कि"तथा कथित रैयतवारी प्रथा में धीरे-धीरे ऐसा हो रहा है कि रैयत टेनेन्ट हो गये हैं और मारवाड़ी (साहुकार) जमींदार (मालिक)। यह तो जमींदारी प्रथा ही है। फर्क इतना ही है कि उत्तरी भारत की जमींदारी प्रथा में किसानों की रक्षा के लिये जो बात कानूमेंन में रखी गयी हैं वे एक भी यहाँ नहीं है । मालिक गैर जवाबदेह हैं और किसान का कोई बचाव है नहीं। फलतः रैयतवारी न होकर यह तो मारवाड़ी (साहुकारी) प्रथा होने जा रही है"_

"Under so-called ryötwari system it is gradually:coming to this, that the ryot is the tenant and