था कि "बम्बई प्रेसीडेन्सी के परस्पर सुदूरवर्ती दो कोने में जो कर्जदारों ने दो साहूकारों को मार डाला है यह कोई योंही नहीं हुआ है, जो कहीं-कहीं-महाजनों के जुल्मों के फलस्वरूप है। किन्तु मुझे भय है कि ये एक ओर किसानों और दूसरी ओर सूदखोर बनियों के बीच सर्वत्र होने वाले आम तनाव के दो उदाहरण मात्र हैं। और अगर ऐसा है, तो ये बताते हैं कि कि एक ओर कितना भयंकर शोषण-उत्पीड़न और दूसरी ओर कितना अधिक कष्ट-सहन मौजूद है"-
"These two cases of village-money-lenders murdered by their debtors almost at the opposite extremities of our presidency must, I apprebend,be viewed not as the results of isolated instances of oppression on the part of craditors, but as-examples in an aggravated form of the general relations subsisting between the class of money,lenders and our agricultural population, And if so, what an amount of dire oppression on the one hand, and of suffering on the other, do they reveal to us"?
इसी प्रकार १८७१ और १८७५ के मध्य खेड़ा (गुजगत), अहमद-नगर, पूना, रत्नागिरी, सितारा, शोलापुर और अहमदाबाद (गुजरात) जिलों में भी गूजरों, सूदखोरों, मारवाड़ियों, दूसरे बनियों तथा जालिमों के विरुद्ध जेहाद बोले गये, जिनका विवरण "दक्षिणी किसान दंगा-जाँच कमिशन" की रिपोर्ट में दिया गया है। १८७१ और १८५५ के बीच का समय भी बेचैनी का था । १८६५ वाले अमेरिका के गृहयुद्ध के चलते भारतीय रुई का दाम तेज हुआ। फलतः किसानों ने काफी कर्ज लिये। मगर १८७० में उस युद्ध के अन्त होते ही एकाएक सस्ती आई, जिससे १९२९ की ही तरह किसान तबाह हो गये। यह भी था कि.१८६५ से