पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१६५

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( ११० के खिलाफ वोट देना क्या था गोया ग्याऊँ की ठौर पकड़नी थी चूहों को। मगर उनने ऐसा ही करके सबको हैरत में डाल दिया । जो लोग यह कहके किसान-संघर्ष से भागना चाहते हैं कि मौके पर वे साथ न देंगे. उनके मुँह में करारा तमाचा वहाँ के किसानों ने लगाया और अमली तौर से यह बात सिद्ध कर दी कि यह इलजाम सरासर झूठा है । मुझे तो उसी बिहटा के इलाके में ऐसे और भी कई मौके मिले हैं जब किसानों ने श्राशा से हजार गुना ज्यादा कर दिखाया है। इसीलिये मेरा उनमें अटूट विश्वास है । मैं मानता हूँ कि यदि वे कभी हमारा साथ नहीं देते, तो इसमें उनका कसूर न होके हमारा ही रहता है । जब हमीं में उनके बारे में विश्वास नहीं है, तो फिर हो क्या । हम खुद ही जब लड़ना नहीं चाहते और आगे पीछे करते रहते हैं तो किसान क्या करें ? तब वे कैसे पूरा पूरा साथ दें १और साथ न देने पर भी वे दोषी क्योंकर बन सकते हैं ? और तो. और -जिस महाशय को जमींदार के खिलाफ किसानों ने शान से जिताया, उन्हें खुद किसानों पर यकीन न हुआ। इसका सबूत हमें उसके बाद दो. मौकों पर साफ़ साफ़ मिला। पीछे उनने स्वयं माना कि उन्हें विश्वास न था। जब मैं विश्वास रखता था। इसीलिये उनने मेरे खयाल को हार. कर सही माना । खूबी तो यह कि वह किसानों के क्रांतिकारी नेता माने जाते हैं, या अपने आपको कम से कम ऐसा समझते जरूर हैं। यही है. हमारा किसान नेतृत्व ! फिर भी घमंड रखते हैं कि क्रांति करेंगे और किसान- मजदूर राज्य लायेंगे! हाँ, तो कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन चुकने के बाद शायद सन् १९३८ या ३६ में उसी अछुवा का एक जवान कोइरी किसान बिहटा श्राश्रम में मेरे पास एक दिन अाया। अठारह, वीस साल की उम्न होगी। गटीला जवान,. छरहग, बदन, काला रंग और हँसता चेहरा । उस दिन की घटना कुछ ऐसी थी कि मुझे सारी जिन्दगी भूलेगी नहीं । इसलिये उसका चित्र मेरी आँखों के सामने नाचता है। उसे मैं पहचानता भी न था। मगर वह तो मुझे पहचनता था ही। .