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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१६६

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( १११ ) वह आया था मेरे पास अपनी दुख-गाथा सुनाने । शायद घर में कोई बड़े बूढ़े न होंगे। पढ़ा-लिखा भी न था। कांग्रेसी मंत्रियों ने लगान कम करवाने और बकाश्त जमीन की वापसी के नाम पर जो बंटाढार किया था और इस तरह कांग्रेस की लुटिया डुबा दी थी, उसीके फलस्वरूप उस गरीब की फर्याद मेरे सामने थी। सारी कोशिश करके वह थक चुका था। मगर जमींदार के पैसे और कानून की पेचीदगी के सामने उसकी एक भी चल न सकी थी। फलतः उसकी आँखें खुल गई थीं। चुनाव के समय कांग्रेस के नाम से जो डंका पिटा था कि लगान काफी घटाया जायगा और बकाश्त जमीनें वापस दिलाई जायँगी, उस पर सीधे सादे किसानों ने पूरा विश्वास किया था। मगर जब मौका पड़ने पर उन्हें असलियत का पता चला और मालूम हुआ कि बरसने वाले बादल तो और ही होते हैं; वे तो सिर्फ गर्जने वाले थे, तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । एक तो कुछ हुआ भी नहीं ! दूसरे जमींदारों और उनके दलालों की धमकियाँ और तानाजनी उन्हें फिर मिलने लगी। इसलिये उनका क्षोभ और क्रोध उचित ही था । वह जवान भी इसी क्षोभ और क्रोध को उतारने के लिये मेरे पास श्राया था। सामने आते ही मैंने उससे पूछा कि 'कहो भाई, क्या हुक्म है ।' मैं हमेशा नये या आकस्मिक मिलने वालों से 'क्या हुक्म है' ही कहता हूँ। किसानों से खामखाह यही कहता हूँ। मैं मानता हूँ कि उन्हें मुझे हुक्म देने का पूरा हक है । जब मौके पर मेरी बातों पर विश्वास करके वे लोग मेरा कहना मान लेते हैं, तो दूसरे मौके पर मुझे वे हुक्म क्यों न दें ? यदि उन्हें यह अधिकार न हो तो फिर मेरी बातें वे क्यों मानने लगें। कोई जोर-जुल्म या दवाव तो है नहों। यहाँ तो परस्पर समझौता (understanding) ही हो सकता है। यही बात है भी। इसीलिये तो मेरे काम में रुकावट होती नहीं। मैं बराबर माने बैठा कि किसान मेरा साथ जरूर देगा। क्योंकि मैं उसका साथ जो देता हूँ। उसने अपनी लम्बी दास्तान सुनाई और कहा कि कैती कैसी दौड़-धूर