( १२५ ) . पर बहुत ही जोर दिया और कहा कि दुबला के नाम से प्रसिद्ध गरीव किसानों और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत की खैरियत नहीं है। . इस पर हमने कहा कि "लेकिन हम जो यह किसान-सभा कर रहे हैं उसे सरदार वल्लभ भाई तो पसन्द नहीं करते । हालांकि उन्हें चाहिये तो यह था कि वह खुद दुबला लोगों के लिये यह काम करते और गांधी जी भी उन्हें इस बात का आदेश देते । यह क्या बात है कि गांधी जी इस बात पर मौन हैं ? क्या उन्हें भी यह बात पसन्द है ?" तब उनने कहा कि "इसमें गांधी जी का दोष नहीं है। असल में लीडर लोग गड़बड़ी करते हैं। हमने फिर कहा कि "मगर गांधी जी भी हमारी किसान-सभा को पसन्द नहीं करते, यह पक्की बात है। तब हम कैसे माने कि केवल लीडरों की ही भूल है, उनकी नहीं हैं और अगर ऐसी हालत में श्राप 'किसान-सभा में पड़ेंगे, तो गांधी जी जरूर श्राप पर रंज होंगे।" अब क्या था, अब तो वे साफ खुल गये और कहने लगे कि “गाधी जी अपना काम करते हैं और हम अपना । हमें किसान-सभा में ही किसानों का उद्धार दीखता है । कांग्रेस से कुछ होने जाने का नहीं। इसलिये यदि गांधी जी हम पर बिगड़े तो हम क्या करें ! हम तो यह काम करेंगे ही।" बस, मैंने समझ लिया कि किसान-सभा गुजरात में भी जीती-जागती संस्था बनके ही रहेगी, जब कि शुरू में ही जीवन भाई जैसे किसान इसकी जरूरत और महत्ता को यों ही समझने लगे हैं। क्योंकि सभा का काम तो उनने अभी देखा भी नहीं । इससे स्पष्ट है कि परिस्थिति (Objective conditions) उसके अनुकूल है। सिर्फ पथदर्शका और सच्चे कार्यकर्ता (Subjective conditions) की कमी है। इतने ही में हम उस गाँव में जा पहुंचे और एक किसान के दरवाजे पर ठहरे । वैज़गाड़ी का प्रबन्ध होने लगा। शाम भी होई रहो यो । थोड़ी देर में गाड़ी तैयार होके आ गई और हम लोग उस पर बैठ के रवाना हो गये। रास्ते में हमने गाडी हाँकने वाले किसान से हरिपुरा की बात चलाई और पूछा कि वा विठ्ठल नगर में काम करने के लिये
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