( १२६ ) यहाँ के लोग जाते हैं या नहीं, और अगर जाते हैं तो क्या मजदूरी उन्हें प्रतिदिन मिलती है ? इस पर उसने कहा कि रेलवे या तडक वगैरह में काम करने वालों को दस आने पैसे मिलते हैं । कांग्रेस में भी पहले कुछी कम पैसे मिलते थे। मगर पीछे जब ज्यादा तादाद में काम करने वाले जाने लगे तो छे आने ही दिये जाने लगे ! इसके लिये हो । हल्ला भी हुत्रा। मगर सुनता कौन है ? शायद तूफान मचने पर सुनवाई हो। मगर मजदूर 'तो भूखे हैं । इसलिये जोई मिलता है उसी पर सन्तप कर लेते हैं। उसने इसी तरह की और भी बातें सुनाई। मुझे यह सुनके ताज्जुब तो हुश्रा नहीं। क्योंकि मैं तो कांग्रेसी लीडरों की मनोवृत्ति जानता था। मगर उनकी इस हिम्मत, वेशों और हृदय-हीनता पर क्रोध जलर हुत्रा । मैंने दिल में सोचा कि यही लोग गरीबों को त्वराज्य दिलायेंगे। यही देहात की कांग्रेस है जिसमें देहातियों को उतनी भी मजदूरी नहीं मिलती जितनी सरकारी ठेकेदार देते हैं । इसी बूते पर यह दावा गांधी जी तक कर डालते हैं कि किसानों की सबसे अच्छी संस्था कांग्रेस ही है-"The Congress is the Kigan organisation parexcellence !" ETT इस बात की थी कि न सिर्फ वह गाड़ी हाँकने वाला, बल्कि उस देहात के सभी लोग इस पोल को बखूबी समझ रहे थे जैसा कि उसकी बातों से साफ झलकता था। रात में हम विठ्ठल नगर पहुंचे और वहीं ठहरे। पूरे अठारह रुपयेमें हमने एक नोपड़ा लिया जिसमें सिर्फ तीन चारपाइयों पड़ सकती थीं। यही है गरीबो की कांग्रेस ! वहाँ एक रुपये से कम में तो एक दिन में एक आदमी का पेट भरी नहीं सकता था। चीजें इतनी महँगी कि कुछ कहिये मत । जल्लाद की तरह वेमुरव्वती से तो दूकानदारों से सख्त किराया लिया जाता है । देहात में होने वाली सभी कांग्रेतों की यही हालत होती है। दिन-ब-दिन चीजें महँगी ही मिलती हैं। खैर, हरिपुरा में हमें तो अपना काम करना था। वहाँ किसानों का लग्ना जुलूस निकालना था। मीटिंग भी करनी थी। मगर पता चला कि
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