( १३३ ) जायँ से एक दूर बसे शहर में भी हमारी सभा हुई जिसमें गांधीवादी भरे पड़े थे। मगर ऐसी हालत वहाँ न देखी । उनने सभ्यता से श्रादरपूर्वक हमसे सवाल जरूर किये जिनके उत्तर हसने दिये । मगर ऐसा न किया । यहाँ तो कोई सुनने वाला ही न था । मालूम होता था कि यों ही 'सी सी' और 'हू हू' करके या ताने मार के हमें ये लोग भगा देने पर तुले बैठे थे। तानेजनी की बातें भी बोली जा रही थीं। कोई कोई हमें संन्यासी का धर्म सिखा रहे थे । मगर अप्रत्यक्ष रूप से जैसा कि हुआ करता है। पहले तो हम और याशिक दोनों ही अकचका गये। मगर पीछे खयाल किया कि यहाँ तो जैसे हो निपटना ही होगा। हम मार भले ही खा मगर सभा तो करके ही हटेगें । इतने में एक दीवार के बगल वाले चबूतरे पर हम दोनों जा खड़े हुए और याशिक ने बोलने की कोशिश की। पहले तो वेलोग सुनने को रवादार थे ही नहीं। इसलिये उनकी सिसकारी चलती रही। मगर हम या याज्ञिक भी बच्चे या थकने वाले तो ये नहीं। इसलिये याशिक ने बोलने की कोशिश बराबर जारी रखी । नतीजा यह हुआ कि बाधा डालने वाले थक के सुनने को बाध्य हुए । अाखिर कब तक ऐसा करते रहते १ उनका थकना जरूरी था। हमारा तो एक पवित्र लक्ष्य है जिसमें मस्त होने से हम थकना क्या जाने १ वह लक्ष्य भी महान है। शोपितों एवं पीड़ितों का उद्धार ही हमारा लक्ष्य है। उसमें हमारा अटल विश्वास भी है। फिर हम क्यों थकते १ बल्कि ऐसी बाधाओं से तो उल्टे हमारी हिम्मत और भी बढ़ती है । मगर उन लोगों का तो कोई महान् और पवित्र लक्ष्य या नहीं। फिर थकते क्यों नहीं ? जब वे चुप हो गये तो हमें और भी हिम्मत हुई। फिर तो श्री इन्दुलाल ने अपना लेक्चर तेज किया और धीरे धीरे उन लोगों को ऐसा बनाया कि कुछ कहिये मत । अाखिर वह भी उसी खेड़ा जिले के ही रहने वाले ठहरे । कालोल के बहुतेरे लोग उनके त्याग और उनकी जन-सेवा को खूब ही जानते हैं। वे गांधी जी के प्राइवेट सेक्रेटरी बहुत दिनों तक रह
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