( १७८ ). सुन्दरं किं तबीअत खुश हो जाय। चुभने वाली बात बहुत ही अच्छे ढंग से दर्शाई गई थी। इतना ही नहीं। मुझे ताज्जुब तो तब हुश्रा. जब मैंने देखा कि लेखों में मेरा और अन्य कई किसान-नेताओं का भी जिक्र है, उनकी बड़ाई है,, उनके कामों की तारीफ है। साथ ही यह भी पाया कि कांग्रेसी नेताओं के मुकाबिलें में हमारे को जन-हित की दृष्टि से अच्छा और महत्वपूर्ण बताया गया था। बातें कहने और लिखने का तरीका उनका अपना था और यही ठीक भी था। बनावटी ढंग से बातें लिखना या लिखने में दूसरों की नकल करना कभी ठीक नहीं होता। हर बात में मौलिकता का मूल्य होता है। चाहे शैली कुछ भी हो-और मैंने तो निराली शैली को हृदय से पसन्द किया-मगर बातें तो मार्के की थीं, दुरुस्त थीं। यह भी नहीं कि हमसे उनकी कोई घनिष्टता थी। हम तो उनमें किसी को जानते-पहचानते भी न थे । इसीलिये उनने जो कुछ लिखा वह उनके हृदयों का उद्गार था। कइयों ने लिखा था, न कि एक दो ने ही। कांग्रेसी नेताओं पर कुछ चुटकियाँ भी थीं, जो भद्दी नं थीं । किन्तु अच्छी थीं । लोग कहते हैं कि हमारे देश में जातीयता का अभिशाप कुछ करने न देंगा। मैं तो निराशावादी हूँ नहीं, किन्तु पक्का आशावादी हूँ। मैंने वहाँ निराशावाद से उल्टी बातें पाई। हालाँकि घोर जाति पक्षपात का इलाका वह है। हरनौत इसका अड्डा माना जाता है। मेरे खिलाफ तो. वहाँ बवंडर खड़ा हो चुका था। फिर भी युवकों के वे स्वाभाविक उद्गार हवा का रुख कुछ दूसरा ही बताते थे । मैं मानता हूँ कि सयाने होने पर उनके दिमाग में जहर भरने की कोशिश होगी, होती है। मगर मैंने वहाँ जो कुछ पाया वह बताता था कि वह जहर मिटेगा जरूर ही ।
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