पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १६०) हम तो प्यासे मरे जा रहे थे और लोगों को जुलूस की पड़ी थी। पर, किया क्या जाय । देहात के लोग तो सीधे होते हैं। वे अगर सारी बातें समझ जाँय तो फिर जमींदारी कैसे रहने पायेगी ? महाजनों की लूट चालू क्योकर रहेगी ? उनकी नासमझी और उनका भोलापन यही तो लूटने वालों की-शोषकों की-पँजी है, यही उनका इथियार है। जैसे-तैसे जुलूस का काम पूरा हुया और हम लोग गाँव से बाहर वाग में पहुंचे जहाँ सभा का प्रबन्ध था । मगर मेरा तो गला सूख रहा था । इसलिये कुएँ से पानी मँगवा के भरपूर स्नान किया तब कहीं कुछ ठडक आई । फिर पानी पिया । जरा लेटा । इतने में लोग भी जमा होते रहे । मुझे पता चला कि वहाँ शायद ही कोई पहुँच पाता है। बरसात में फतुहा से लेकर वहाँ तक केवल जलमय रहता है । जाड़े में भी आना गैरमुमकिन ही हैं। हाँ, गर्मी में शायद ही कोई आ जाते हैं। आमतौर से यही होता है कि मीटिंगों की नोटिसें बँट जाती हैं, लोग जमा भी होई जाते हैं। मगर नेता लोग ही नहीं पहुंच पाते । फलतः लोग निराश लौटते हैं। इस बात की आदत सी वहाँ के लोगों में हो गई है। मोटर वगैरह का श्राना तो असंभव है। बैलगाड़ी की भी यही हालत है। हाथी या घोड़े से पा सकते हैं। नहीं तो पैदल । मगर नेता और पैदल ? मेरे बारे में भी लोग समझते थे कि शायद ही पहुँचूँ । इसीलिये मरता-जीता, यका-प्यासा जब मैं पहुँच गया तो लोगों को ताज्जुब हुआ। यो तो उसफा में मिडिल स्कूल है । लोइब्रेरी भी है । फुटबाल वगैरह की खेल भी होती है। कांग्रेस की लड़ाई में वहाँ के कुछ लोग कई बार जेल भी गये हैं। फिर भी वह समूचा इलाका ही पिछड़ा हुआ है। सभाएँ शायद ही होती हैं। छोटे मोटे जमींदार, जो उस इलाके में हैं, खूब जुल्म करते हैं। पुलिस का भी वहाँ पहुँचना आसान नहीं है। इसलिये जालिम लोग स्वच्छन्द विचरते हैं । लगातार कई साल के, बीच मेरी वही एक मीटिंग थी 'जहां पुलिस पहुँच न सकी, सी० आई० डी० रिपोर्टरों का पहुँचना तो और असंभव था । वे लोग हिलसा की मीटिंग में चले