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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२५

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जाय, दवा के बिना और कपड़े के अभाव में कराहता फिरे; फिर भी उसी की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले जमींदार उसके साथ जरा सी भी रियायत करने को रवादार नहीं होते, एक कौड़ी भी लगान या अपने पावने में छोड़ना नहीं चाहते। सैलाब या अनावृष्टि से फसल खत्म हो गई और महाजनों से कर्ज लेकर किया हुआ किसान का सारा खर्च मिट्टी में मिल गया। फिर भी जमींदार अपना लगान पाई पाई वसूल करता ही है। और न्यायालय भी उसी की मदद करते हैं। किसान की फर्याद अनसुनी कर दी जाती है। विपरीत इसके यदि किसान के पास रुपये-पैसे हों तो भी वह जमींदार को एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता, अगर उसके बस की बात हो। यदि देता है तो विवश होकर ही, कानून और लाठी के डर से ही। वह दिल से चाहता है कि जमींदार नाम का जीव पृथ्वी से मिट जाय। जमींदार भी किसान से न सिर्फ लगान चाहता है, वरन् उसकी सारी जमीन किसी भी तरह छीन कर खुदकाश्त-बकाश्त बनाना और अपने कब्जे में रखना चाहता है। इससे बढ़कर परस्पर वर्ग-शत्रुता और क्या हो सकती है? फलतः जैसे जमींदारों ने अपने वर्ग के हितों की रक्षा के लिए जमींदार सभायें अनेक नामों से मुद्दत से बना रखी हैं और उन्हीं के द्वारा अपने हकों के लिये वे लड़ते हैं; ठीक उसी तरह किसानों के वर्ग-हित की रक्षा के लिये किसान-सभा है, की जरूरत है, किसान-सभा चाहिये। तभी उनका निस्तार होगा। जमींदार तो मालदार और काइयाँ होने से बिना अपनी सभा के भी अपनी हित-रक्षा कर सकते हैं। वह चालाकी से दूसरी सभाओं में घुसकर या उन पर अपना असर डाल कर उनके जरिये भी अपना काम बना सकते हैं। रुपया-पैसा, अक्ल और प्रभाव क्या नहीं कर सकते? मगर किसान के पास तो इनमें एक चीज भी नहीं है। इसीलिये किसान सभा जरूरी है।

कहा जाता है कि जब अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें पछाड़ने के लिये कांग्रेस मौजूद ही है और उसके ९० फीसदी मेम्बर किसान ही हैं, तो फिर उससे जुड़ी किसान-सभा क्यों बने? यह भी नहीं कि कांग्रेस किसानों के