सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९


धार्मिक और जातीय आधार पर किया गया मनुष्यों का वर्गीकरण धोका देता है और झूठा है, गलत है। कानून की नजरों में टेनेन्ट या किसान मात्र के हक समान ही हैं, फिर चाहे वह क्रिस्तान, मुसलमान, हिन्दू आदि कुछ भी क्यों न हो; ब्राह्मण, शूद्र, शेख, पठान वगैरह क्यों न हों। जमींदारों के हक की भी यही हालत है। अपने-अपने हकों की लड़ाई भी इसी दृष्टि से होती है। न तो कोई हिन्दू जमींदार हिन्दू किसान के साथ रियायत करता है और न मुसलमान मुसलमान के साथ। चाहे किसी भी धर्म का किसान क्यों न हो, उसके विरुद्ध सभी हिन्दू-मुसलमान जमींदार एक हो जाते हैं, एक ही आवाज उठाते हैं। जमींदारों के खिलाफ सभी धर्म, जाति और सम्प्रदाय के किसानों को भी ऐसा ही करना चाहिये, ऐसा ही करना होगा। इसी तरह एक और संगठित होकर अपनी आवाज बुलन्द करनी होगी और हक के लिये मिलकर लड़ना होगा। यही वर्ग संस्था के मानी हैं और यही संगठन किसान-सभा है। जब तक किसान एक सूत्र में बंधेः नहीं है, संगठित नहीं है, तब तक अपने वर्ग के शत्रुओं के विरुद्ध वे जो कुछ भी चीख-पुकार करते हैं वह निरा आन्दोलन कहा जाता है। मगर ज्योंही वे एक सूत्र में बँध कर यही काम करते हैं त्योंही उसका नाम किसान-सभा हो जाता है। जितना ही जबर्दस्त उनका यह एक सूत्र में बँधना होता है उतनी ही मजबूत यह किसान-सभा होती है। इसमें उनके भी वर्ग शत्रुओं और उन शत्रुओं के मददगार साथियों के लिये कोई भी गुंजायश नहीं हैं। क्योंकि तब यह वर्ग संस्था रहेगी कैसे? संस्था तो गढ़ है न? फिर उसमें शत्रु या उनके संगी-साथी कैसे घुसने पायेंगे? घुसने पर तो वह गढ़ ही शत्रुओं का हो जायगा और जिस कार्य के लिये वह बनाया गया था वही न हो सकेगा।

जिस प्रकार चूहे और बिल्ली के दो परस्पर विरोधी वर्ग हैं और एक वर्ग-दूसरे को देखना नहीं चाहता, चूहे बिल्ली को और वह चूहों को खत्म कर देना चाहती है, ठीक यही बात जमींदारों और किसानों की भी है। वे एक दूसरे को मिटा देना चाहते हैं। चाहे किसान परिवार भूखों मर