. , ( २०७ ) मैं तो यही जानता हूँ और पढ़ा भी ऐमा ही है कि अगर किसानों और- मजदूरों के हाथ में हुक्मत की बागडोर लानी है जिसे क्रांति कहिये या कुछ और ही कहिये, तो उन्हीं को इससे लड़ना और कट मरना होगा। जब तक उन्हीं के बीच से नेता और योद्धा पैदा न होगे, पैदा न किये जायगे तब तक उनका निस्तार नहीं । लड़ते तो वे हई। जेल जाते हैं, लाठी खाते हैं, गोलियों के शिकार होते हैं। मगर उनके नेता बाहरी होते हैं उनके बीच से नहीं पाते । अब तक एकाध जगह को छोड़ सर्वत्र ऐसा ही होता रहा है । नतीजा यह हुया है कि क्रांति होने पर भी उन्हें कुछ हासि न नहीं हुआ है। उनकी गरीबी, लूट, परीशानी, भूख, बीमारी. निरक्षरता ज्यों की त्यों बनी रह गई है। दुनियाँ की क्रांतियाँ इस बात का सबूत हैं । फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी, अमेरिका, इटलो वगैरह देशों में क्रांतियाँ तो हुई। मगर कमाने वाले सुखी होने के बजाय और भी तकलीफ में पड़ गये। गोकि लड़ने और मरने में वही श्रागे थे । यह क्यों हुगा । इसीनिये न, कि उन लड़ाइयों और क्रांतियों का नेतृत्व, उमकी बागडोर दूसरे के हाथ में थी १ इसलिये मैं यही मानता हूँ कि जो बाहरी नेता हैं उनका काम यही होना चाहिये कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर दें। उसके बाद क्रांति वही खुट लायेंगे। हमारा प्रधान काम झांति लाना न होकर उसके लिये किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर देना मात्र है । इतना कर देने के बाद उन्हीं के नेतृत्व में जो मांति होगी उसमें हम जो भी सहायता कर सकें वह उचित ही होगी। मगर अपने हो नेतृत्व में क्रांति लाने के मर्ज से हमें सबसे पहले चरी होना होगा। यह दूसरी बात है कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही पैदा होने वाले नेताओं के नेतृत्व और हमारे नेतृत्व में कोई अन्तर हो-दोनो एक ही हो । यह खुशी की बात होगी । मगर नेतृत्व की जांच की कसौटी हमारा नेतृत्व न होकर उन्ही वाला होगा यह याद रहे । हमारे नेतृत्व से उनका नेतृत्व मिलने के बजाय उनके हो नेतृत्व से हमारा नेतृत्व मिलना चाहिये । यही बात पैसे रुपये की भी है। जिसे विजयी होना है उसको अपने ही -
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