, ( २०६ :) आखिर कोई दूसरा आपको पैसा क्यों देगा ? या कहीं और जगह से पैसा लाने में हजार खतरे का सामना करने के बाद पैसा मिलने पर उसे हमें क्यों देगा अपने लिये, अपने बाल-बच्चों के लिये उसी पैसे से जमीन- जायदाद क्यों न खरीद लेगा ? कोई रोजगार, व्यापार क्यों न चलायेगा ! धर्म और परोपकार का नाम इस सम्बन्ध में, इस स्वार्थी और व्यवहारतः जड़वादो (materialist in practice) संसार में, लेना अपने आपको धोखा देना है, व्यावहारिकता से आँख मोड़ लेना है। झूठी कसमें खाई जाती है और कचहरियों में गंगा तुलसी, कुरान पुरान तक की शपथें जो आये दिन ली जाती हैं वह क्या धर्म और परोपकार के ही लिये ? वद काम दुनियाबी फायदे और जमीन-जायदाद के ही लिये किया जाता है यह कौन नहीं जानता ? इसी प्रकार धर्म और परोपकार के नाम पर देने वाले धनी और चतुर श्रामतौर से हजार गुना फायदे को सोचकर ही देते हैं। चाहे कहीं चुनाव में वोट मिलने में आसानी हो, कारवार में श्रासानी हो या मौके पर बड़ी जमा और बड़ा अधिकार मिल जाने में ही उसते मदद मिले । मगर यही बात होती है जरूर । वे लोग पहले से ही हिसाब-कितान लगाके और दूर तक सोच के ही इस धर्म और उपकार के काम में पड़ते हैं, यह हमें हर्गिज भूलना न चाहिये। इसीलिये हमारा तो पछता मंत्र होना चाहिये कि अपने को फैशासिल करने के लिये जो लड़ाई किसान मजदूर लड़ना चाहते हैं उसके लिये आदमी, रुपया और सामान (Men, Money and faterial) खुद जुटायें, अपने पास से ही मुहय्या करें । खुद भूखे नंगे रहके मद काम उन्हें करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं । हमें उन दो टूक यार देना चाहिये कि अगर वे ऐसा नहीं करते, इसके लिये तैयार नहीं है मोहक उनकी लड़ाई सेवाजी दावा देते हैं- हम उसमें इनिन पदम उनसे साफ साफ कह दें कि इस तरह उसमें पड़ने पर तो हम उनमा धोखा देंगे, गो हमें सत्ती लीटरी जरूर ही मिल जापा। नानी मिना किसानों के धन, जन के गैरों की आशा पर उनकी मायने -
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