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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२८

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हैं। यही ठोस सत्य है और हम इसे भुलाकर भारी धोका खायँगे। ठीक राष्ट्रीयता को भी इसी तरह भारी धक्का लगे, अगर वह किसानों की तात्कालिक माँगों और तकलीफों का खयाल करके उनके सम्बन्ध में अपना प्रोग्राम स्थिर न करे। राष्ट्रीयता को अमली और व्यावहारिक जामा पहनना ही होगा और भौतिक दुनिया को देखकर ही चलना होगा। तभी वह पूर्ण स्वतंत्रता के युद्ध में सफल होगी। यही वजह है कि राष्ट्रीय नेता जमींदारी मिटाने की बातें करते और जमींदारों के गुस्से का सामना करते हैं। इसमें उनकी चालाकी और व्यवहार-कुशलता की झांकी मिलती है।

यह भी न भूलना होगा कि फ्रांस में जमींदारी का खात्मा नेपोलियन जैसे साम्राज्यवादी के हाथ से हुई। उसे कोई नहीं कह सकता कि किसान मनोवृत्ति का था, या उसकी संस्था किसान-सभा जैसी थी। उसकी सरकार घोर अनुदार, पर दूर देश थी। उसने देखा कि फ्रांस के प्राचीन राजघराने के लोग दो दलों में विभक्त होकर एक जमींदार वर्ग का समर्थक है तो दूसरा मध्यमवर्ग, बूर्जुवा या कल-कारखाने वालों का। किसानों का पुर्सां किसी को न पा उसने जमींदारी मिटाकर उन्हें अपने साथ किया और फौज में किसान युवकों को भर्ती करके महान् विजयों के द्वारा साम्राज्य विस्तार किया। इसमें उसकी व्यवहार-कुशलता एवं दूर देशी के सिवाय और कुछ न था। वह न तो किसान था और न किसान-मनोवृत्ति का, और इसका पता एक मुद्दत गुजरने पर किसानों को तथा दुनिया को भी लग गया जब उसी के बनाये "नेपोलियन वाले कानूनों" के द्वारा उन्हीं किसानों की जमीन धड़ाधड़ बैंकों एवं महाजनों के पास चली गई। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सरकार ने तो वहाँ जमींदारी प्रथा होने ही न दी और अधिकांश किसानों को, विशेषतः पश्चिमी भाग में, मुक्त जमीनें दीं। यह बात लेनिन की चुनी लेखमाला के अँग्रेजी संस्करण के बारहवें भाग के १९४ पृष्ठ में स्पष्ट लिखी गई है। अन्यान्य देशों में भी अनुदार या दकियानूस दल वालों ने ही जमींदारी मिटाई है।

दरअसल देशों में उद्योग-धन्धों की अबाध प्रगति के लिये जिस