ने इसीलिये कोसा कि वह कांग्रेस विरोधी है। परन्तु प्रश्न तो यह है कि इस निर्जीव और लचर किसान-कार्यक्रम की जगह उसी समय कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का प्रोग्राम क्यों न कबूल किया था? क्या पहले वह दूसरी थी और आज बदल गई?
दरअसल उस समय किसान-सभा ऐसी जोरदार न थी और उसने भी जमींदारी मिटाने का प्रश्न अभी तेज बना न पाया था, जिससे कांग्रेस पर उसका दबाव पड़ता और वह उसे मानने को मजबूर होती। तब समय का रुख ऐसा बेढंगा न था इस जमींदारी के बारे में। तब कांग्रेस का आधार-स्तम्भ किसान समाज में जमींदारी के मिटा देने के बारे में ऐसी भीषण मनोवृत्ति न थी जैसी आज है। उनमें इसके प्रति ऐसा रोष-क्षोभ न था जो आज है। फलतः उसके मिटाने का प्रश्न न उठाकर भी कांग्रेस उस समय किसानों को अपने साथ ले सकती थी। इसी से उसने न करके कांग्रेस का टिकना या किसानों को अपने साथ ले सकना असंभव है। इसीलिये पूरे दस साल बाद उसने जमींदारी मिटाने की बात अपनाई है। सो भी मुआविजा या कीमत देकर।
इससे कई बातें सिद्ध होती हैं। एक यह कि कांग्रेस ने खुद ऐसा न करके किसान-सभा, किसान-आन्दोलन और किसानों के दबाव से ही ऐसा किया है या यों कहिये कि उसने समय का रुख-पहचाना है। इससे उसकी और उसके नेताओं की अवसरवादिता सिद्ध होती है, जो बेशक किसान-सभा या किसान नेता होने का लक्षण कदापि नहीं। किसानों का हित तो १९३६-३७ में ही पुकारता था कि जमींदारी मिटाओ।
इससे किसान-सभा और कांग्रेस का मौलिक एवं बुनियादी भेद भी सिद्ध हो जाता है। जहाँ किसान-सभा अर्थनीति और आर्थिक कार्यक्रम को राजनीति के द्वारा देखती हुई उसे साधन और आर्थिक बातों को, अर्थनीति को साध्य मानती है, और इसीलिये राजनीतिक हार-जीत की वैसी पर्वा न करके सदा किसानों की आर्थिक बातों को ही देखती रहती है और वैसा ही कार्यक्रम चाहती है, तहाँ कांग्रेस राजनीति को ही अर्थनीति के