पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/३१

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द्वारा, इसी आइने में देखती है। फलतः उसके लिये ये आर्थिक बातें तथा प्रोग्राम साधन हैं और राजनीति साध्य या लक्ष्य। यही वजह है कि जब १९३६-३७ में मामूली आर्थिक प्रोग्राम से ही उस राजनीतिक चुनावों में जीत संभव थी तो उसने वैसा ही प्रोग्राम बनाया। लेकिन इस बार वैसा संभव न देख जमींदारी मिटाने की बात उठाई।

सारांश, हर हालत में किसानों को साथ लेकर उसे राजनीति में सफल होना है। फलतः उनका हित कांग्रेस लीडरों का लक्ष्य न होकर साधन मात्र है। किसान-हित की बातों और वैसे कामों के द्वारा वे अपना मतलब निकालना चाहते हैं। यह बात किसान नेताओं एवं किसान-सभा में नहीं हो सकती। उनका तो काम ही है किसानों के हित को ही अपना अन्तिम लक्ष्य बनाना और आगे बढ़ाना और इस प्रकार एक न एक दिन उसी रास्ते राजनीति में भी विजयी होना।

दूसरी बात यह है कि यदि कांग्रेस से जुदा स्वतंत्र रूप से कोई किसान-आन्दोलन और किसान-सभा न हो तो फिर कांग्रेस पर दबाव किसका पड़ेगा आज जो कांग्रेस प्रगतिशील मानी जाती है वह इसीलिये न, कि वह समय की गति पहचान कर तदनुसार ही कदम बढ़ाती है। यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है, उसमें यह गुंजायश है, यही उसकी जान और शान के लिये बड़ी चीज है। मगर, अगर दबाव न हो तब? तब तो वह टकियानूस ही बन जाय, उसकी प्रगति जाती रहे और वह निर्जीव हो जाय, जैसी नरम दलियों की संस्थायें हैं। ऐसी दशा में आजादी के संग्राम में पूर्ण सफलता की आशा ही जाती रहे। इसीलिये कांग्रेस को प्रगतिशीलता एवं लक्ष्य की सफलता के लिये भी जिस किसान दबाव की सख्त जरूरत है, उसके लिये स्वतंत्र किसान-सभा का होना नितान्त आवश्यक है। क्योंकि तभी किसान-हित की दृष्टि से स्वतंत्र आन्दोलन करके ऐसा वायुमंडल बनाया जा सकता है जिसका दबाव कांग्रेस पर पड़े और यह प्रगतिशील कार्यक्रम बनाकर किसान समूह को अपनी और खींचे। इसके अभाव में वह नरम दलियों एवं लिबरलों की तरह