मिल जाते हैं; समाजवाद या साम्यवाद की दशा में इनका परस्पर विरोध नहीं होता, यह बात सही है। मगर प्रश्न तो वर्त्तमान दशा और समय का है और आज इनके स्वार्थों का विरोध स्पष्ट है। यदि गल्ले, साग-भाजी और फल-फूल आदि महँगे बिकें तो किसान सुखी हों और खुश रहें, मगर कारखाने के मजदूर नाखुश और तबाह हों। विपरीत इसके यदि कारखाने के बने माल-कपड़े आदि-महँगे बिकें और कारखानेदारों को ज्यादा लाभ हो तो मजदूरों के वेतन बढ़े, उन्हें बोनस मिले और दूसरी सुविधायें मिले। लेकिन इसमें किसान की तबाही है। उसकी पैदा की गई सारी चीजों की कीमत कपड़े आदि में ही लग जाती है और वह तबाह रहता है। यदि मजदूर अपनी माँगें मनवाने के लिये महीनों हड़ताल करें तो मिल-मालिक उनके सामने झुकें। मगर ऐसा होने पर मिल के बने कपड़े आदि महँगे होते और किसानों के ज्यादा पैसे इनमें लग जाते हैं। फलतः वह ये हड़तालें नहीं चाहते। ऐसी ही सैकड़ों बातें हो सकती हैं जिनसे दोनों के तात्कालिक स्वार्थों का परस्पर विरोध स्पष्ट है और ये तात्कालिक स्वार्थ ही उनकी दृष्टि को किसी रास्ते पर लाते हैं। ये भौतिक स्वार्थ हैं, प्रत्यक्ष हैं, आँखों के सामने हैं। इनके मुकाबिले में समाजवाद और साम्यवाद वैसे ही परोक्ष और केवल भावनामय हैं, दिमागी हैं, जैसी आजादी और स्वतंत्रता। जिस प्रकार तात्कालिक स्वार्थों को भूल कर हम इन्हें स्वराज्य संग्राम में सामूहिक रूप से आकृष्ट नहीं कर सकते, ठीक वैसे ही इन परस्पर विरोधी तात्कालिक स्वार्थी को अलग करके, इनकी पर्वा न करके हम किसानों या मजदूरों को सामूहिक रूप से अपनी सभा में आकृष्ट नहीं कर सकते। फिर समाजवाद के लिये ये तैयार कैसे किये जायँगे? फलतः न्याय, ईमानदारी, दूरंदेशी और व्यावहारिकता का तकाजा यही है कि इन दोनों की सभायें एक दूसरे से स्वतंत्र हों और किसी भी पार्टी का उन पर नियंत्रण न हो। तभी उनमें बल आयेगा। कम से कम किसान-सभा तो तभी सबल और सजीव बन सकेगी और पीछे मजदूर-सभा के सहयोग से साम्यवाद स्थापित करेगी।
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