पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/४०

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एक बात और। मार्क्सवादियों ने किसानों को मध्यम या बूर्जु वर्ग में माना है और प्रतिक्रियावादी कहा है। यह ठीक है कि परिस्थिति विशेष में यह बूर्जुवा वर्ग भी क्रान्तिकारी तथा आमूल परिवर्त्तनवादी (Revolutionary and Radical) होता है। यही बात किसान पर भी लागू है। यही बात लेनिन ने अपनी चुनी लेखमाला के अँग्रेजी संस्करण के १२ वें भाग के अन्त में लिखी है कि "In Russia we have a "radical bourgeois". That radical bourgeois is the Russian Peasant." मगर मजदूरों को तो सबों ने क्रान्तिकारी माना है। ऐसी दशा में ये दो वर्ग परस्पर विरोधी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। फिर इन दोनों की एक पार्टी कैसी? इन दोनों का एक संगठन कैसा? वर्त्तमान सामाजिक परिस्थिति में ये स्पष्ट ही दो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलने वाले हैं। फलतः इनके स्वतंत्र संगठन बनाकर ही धीरे-धीरे इन्हें रास्ते पर लाना होगा।

कम्युनिस्ट पार्टी के सम्बन्ध में जो बातें अभी-अभी कही गई हैं वही अक्षरशः सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि पार्टियों के बारे में भी लागू हैं। क्योंकि उनका भी दावा वैसा ही है जैसा कम्युनिस्ट पार्टी का। यदि इनमें कोई यह भी दावा करती है कि उनके भीतर फटे हाल बाबुओं का वर्ग भी आ जाता है, या मध्यमवर्ग भी समाविष्ट हो जाता है, तो इसमें हालत जरा और भी बदतर हो जाती है। फलतः सच्ची और स्वतंत्र किसान-सभा बनाने का उनका भी दावा वैसे ही गलत है जैसे कम्युनिस्टों का। कम्युनिस्टों और रायिलों में इतनी विशेषता और भी है कि वह भारत की व्यापक, दहकती और सर्वत्र ओत-प्रोत होकर "युद्धं देहि" करने वाली राष्ट्रीयता का अपमान करते और उसकी अवहेलना करके भी कायम रहना चाहते हैं। वे अपनी अन्तर्राष्ट्रीयता के साँचे में इस राष्ट्रीयता को ढालने की भारी भूल करते हैं। यह बात इन पार्टियों में नहीं है। वे न तो ऐसी भूल करती हैं और न राष्ट्रीयता को अवहेलना ही करती हैं। वे राष्ट्रीयता को उसका उचित स्थान देती हैं। फिर भी किसान-सभा की स्वतंत्रता बलवत्ता