और वास्तविकता की दृष्टि से सबों का स्थान सभा नहीं है। सभा तो पार्टियों की किसान-सभा के बल बसहा बैल है पुजवाने के लिये, मगर किसानों को तो हल चलाने वाला बैल चाहिये।
एक महत्त्वपूर्ण बात और भी कहनी है। आखिर क्रान्ति करते हैं किसान और मजदूर ही। एतदर्थ उनकी वर्ग संस्थायें अत्यावश्यक हैं; कारण, वही उन्हें इसके लिये संगठित और तैयार करती हैं। बिना इन संस्थाओं के किसान और मजदूर सामूहिक रूप से तैयार किये जा सकते नहीं। यह बात सभी क्रान्तिकारियों को मान्य है, तो फिर राजनीतिक दलों और पार्टियों की जरूरत क्या है। इन दोनों सभाओं की कार्यकारिणी समितियाँ आपस में सहयोग करके क्रान्ति का संचालन एवं उसका नेतृत्व बखूबी कर सकती हैं। केवल दोनों के सहयोग की व्यवस्था होना जरूरी है और यह बात बिना पार्टियों के भी वे दोनों खुद ही कर सकती हैं। एक समय था जब राजनीतिक विचारों का पूर्ण विकास न होने के कारण पार्टियों की आवश्यकता मानी जाती थी ताकि वर्ग संस्थायें पथ-भ्रष्ट न हो जायँ और उन्हें गलत नेतृत्व न मिले। लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी माना जाता था कि सभी देशों की इन पार्टियों की भी एक अन्तर्राष्ट्रीय (International) पार्टी हो, जो सबों को सूत्रबद्ध रखकर उन्हें भी उचित नेतृत्व दे, ठीक रास्ते पर ले चले। यातायात और समाचार के साधनों के पूर्ण विकास के अभाव के चलते भी पथ-भ्रष्टता का खतरा था। एक दूसरे से सीधा सम्पर्क रखना असंभवप्राय जो था। मगर आज तो इनमें एक भी बात नहीं है। राजनीति का विकास पराकाष्ठा को पहुँच चुका है, यातायात के साधन अत्यन्त तेज और सुलभ हैं, फोन, तार और रेडियो ने समाचार के संसार में क्रान्ति कर दी है और छपाई की कला ऐसी प्रगति कर गई है कि कुछ न पूछिये। इसीलिये राजनीति का अन्तर्बहिविश्लेषण भी ऐसा हो चुका है कि अब उसमें भ्रम की गुंजायश नहीं, किसी पार्टी के नेतृत्व की जरूरत नहीं। मौजूदा साधनों के सहारे किसानों तथा मजदूरों की संस्थायें अपने कर्त्तव्य का नियमित निर्धारण अच्छी तरह कर सकती हैं।