पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/४३

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इन पर लदने वाली,लादे जाने वाली पार्टी कौन-सी बला है? हम इसी से पनाह माँगते हैं।

कहा जाता है कि जब कांग्रेस के ६० प्रतिशत सदस्य और लड़ने वाले किसान ही हैं तो चुनाव जरिये उसकी सभी कमिटियों पर वे आसानी से अधिकार जमा सकते हैं, और अगर वे ऐसा नहीं करते तो उनकी भूल है। हर हालत में किसान सभा का स्वतंत्र स संगठन फिजूल है। मगर अनुभव कुछ और ही है। इतिहास भी ऐसा ही बताता है। कांग्रेस मध्यमवर्गीयों की संस्था इस मानी में है कि इस पर उन्हीं का अधिकार है, प्रभुत्व है और यह उन्हीं की राय से चलती है, इसमें उन्हीं का नेतृत्त्व है। संसार में आज़ादी के लिये लड़ने वाली संस्थाये ऐसी ही होती हैं, अभी तक यही पाया गया है। यहाँ तक कि सबसे ताजा जो रूस का दृष्टान्त है वहाँ भी जारशाही के विरुद्ध जनतंत्र, शासन के लिये लड़ने वाली सोवियत नाम की संस्था मालदारों और मध्यमवर्गीयों के ही अधिकार में थी। हालांकि उसके सदस्य केवल किसान, मजदूर और सिपाही थे और तीनों ही पूरे शोषित थे। यही वजह है कि १६१७ की मार्च वाली क्रान्ति के फलस्वरूप जारशाही का अन्त हो के रूस में जनतंत्र के नाम पर धनियों का ही शासन कायम हुआ, जिसके विरुद्ध लड़ते रहके लेनिन को अक्टूबर वाली क्रान्ति करनी पड़ी और उसके फलस्वरूप किसान-मजदूरों का शासन वहाँ स्थापित हुआ। लेनिन जैसे महापुरुष और क्रान्तिकारी के रहते भी जब संगठन सोवीयत पर किसान-मजदूरों का अधिकार और नेतृत्व न हो सका, हालांकि उसके सदस्य धनी लोग न थे, जैसों कि क्या विसात कि कांग्रेस पर प्राधिकार जमा सकें, जब कि उसमें धनी और उनके पोषक काफी सदस्य हैं? सोवियत का विधान चवनिया मेम्बरी वाला या इस तरह का न था, जिसमें जाल-फरेब हो और फजी मेम्बर बनाकर कमिटियों पर अधिकार किया जा सके। उसके सदस्य तो बालिग किसान,मजदूर और सिपाही मात्र थे। फलतः बनावटी मेम्बर बनने-बनाने की गुंजायश वहाँ न थी, मगर कांग्रेस में खूब है और यह रोज को देखी बात