पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/४४

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है। लेकिन जब लेनिन विफल रहा तो यहाँ कौन सफलता को आशा करे? इन चुनावों में हजार प्रलोभनों, जाल-फरेबों और दबावों से काम लेकर धनी लोग ही आम तौर से विजयी हो सकते हैं, होते हैं। यही कटु और ठोस सत्य है और यह कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस पर किसानों के नेतृत्व और अधिकार की बात, ऐसी हालत में, निग पागलपन है और धोका है। फलतः किसान-सभा का स्वतंत्र संगठन होना ही चाहिये।

जब कराची तथा फैजपुर में कांग्रेस ने स्वतंत्र किसान संगठन के सिद्धान्त को मान लिया है तो उसका विरोध क्यों? यदि किसान-सभा को कांग्रेस कमिटियों की मातहत या उनके अंग की ही तरह बनाने की बात न होती तो फिर कांग्रेस के द्वारा उनके स्वीकृत होने की बात क्यों कही जाती १ विभिन्न मातहत कमिटियों के स्वीकृत होने का प्रश्न तो उठता ही नहीं। लेकिन फैजपुर के किसान प्रोग्राम की आखिरी, १३ वीं, चीज यही है कि कांग्रेस किसान-सभाओं को स्वीकार करे-"Peasant unions should be recognised."

कहा जाता है कि अभी किसान सभा की क्या जरूरत है? अभी तो अँग्रेजी सरकार हटी नहीं और स्वराज्य आया नहीं, बीच में ही यह वेसुरा राग कैसा। विदेशी सरकार के हटने पर ही प्रश्न उठेगा कि किसका राज्य हो? किसानों का हो? मजदूरों का हो? या कि औरों का ? उससे पहले ही यह तूफाने बदतमीजी कैसा १ यह तो मुसलिम लीग की जैसी ही बात हो गई कि पहले ही बँटवारा कर दो, अँग्रेजी शासन के रहते ही हमारा हिस्सा दे दो। इस आपसी झगड़े में तो वह स्वराज्य मिलने का नहीं। फिर अभी वह हमारा हो, हमाग हो, ऐसा हो, वैसा हो, की तैयारी कैसी? यह वर्ग:संघर्ष और श्रेणी-युद्ध तो उसमें बाधक होगा न? तब तदर्थ किसान-सभा का यह हो-हल्ला एवं महान् प्रयास क्यों?

लेकिन यदि इन प्रश्नों की तह में घुस के देखा जाय तो किसान-सभा की असलियत, अहमियत और आवश्यकता माफ हो जाती है। दरअसल स्वराज्य के दो पहलू हैं-विदेशी शासन का अन्त और अपने शासन,