अपने राज्य, स्व-राज्य की स्थापना । इनमें पहला निषेधात्मक और दूसग विधानात्मक या निर्माण स्वरूप है । 'स्वराज्य' कहने से उसके निर्माणात्मक पहलू पर ही सर्वप्रथम दृष्टि जाती है और वही प्रधान है, मुख्य है, असल है । निर्माण के बिना कुछ हो नहीं सकता। लेकिन निर्माण के पूर्व ध्वंस श्रावश्यक है, कूड़े करकट और गस्ते के रोड़ों को हटाना जरूरी है। नींव खोदने पर ही मजबूत महल खड़ा होता है । नींव के स्थान पर पड़ी हुई मिट्टी बाधक होती है उस महल के निर्माण में । इसीलिये खोदकर उसे हटाना पड़ता है । विदेशी शासन भी अपने शासन के निर्माण में बाधक है । इसीलिये उसका हटाना जरूरी हो जाता है और स्वराज्य के भीतर वह अर्थात् आ जाता है। इसीलिये वह गौण है, अप्रधान है।
मगर हमारे कांग्रेसी नेता उसी पर ज्यादा जोर देते हैं, हालांकि चाहिये जोर देना निर्माणात्मक पहलू पर। यही उनकी भारी भूल है। आखिर विदेशी शासन के हटने पर कोई शासन बनेगा, या कि अराजकता ही उसका स्थान लेगी? "अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत" होगी क्या १ यह तो कोई नहीं चाहता। प्रत्युत विदेशी शासन हटाने-मिटाने के सिलसिले में ही कोई न कोई शासन बनाना ही पड़ेगा, कोई सरकार खड़ी होगी ही। तभी आसानी से सफलतापूर्वक विदेशी हुकूमत को हम मिटा" सकते हैं। वही सरकार समानान्तर सरकार कही जाती है राजनीति की भाषा में । पीछे चलकर उसी सरकार को मजबूत बनाते हैं, यह बुनियादी बात है।
अब प्रश्न होता है कि वह सरकार किसकी होगी । कैसी होगी, कौन सी होगी? यह बड़े प्रश्न हैं और महत्व रखते हैं। यह कहने से तो काम चलता नहीं कि वह सरकार हिन्दुस्तानियों की होगी ! हिन्दुस्तानी तो चालीस करोड़ है न ? तब इनमें किनकी होगी १ ये चालीस करोड़ भी. जमींदार, किसान, पूँजीपति, मजदूर आदि परस्पर विरोधी वर्गों में बंटे है, तो फिर इनमें किन वर्गों की होगी १ जमींदारों की ? पूँजीपतियों की ?' तब किसान या मजदूर उस स्वराज्य की सरकार की स्थापना के लिये..