शक्तिशाली कांग्रेस का मूलाधार है, उसके लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
जो लोग किसान-सभा के विरुद्ध कमर बाँधे खड़े रहकर भी कांग्रेस- कांग्रेस चिल्लाते हैं, उन्हें एक बुनियादी बात याद रखनी होगी। इस ओर. हमने पहले इशारा किया भी है। यहाँ जग उसका विस्तार करना जरूरी है। किसान-सभात्रों को हम असहयोग युग के बाद ही पाते हैं। किसान- आन्दोलन का संगठित रूप उसके बाद ही मिलता है । क्यों ? यह प्रश्न विचारणीय है। उसके पहले न तो मुल्क में और न किसानों में ही यह आत्म-विश्वास था कि अपने शत्रुओं के विरुद्ध कोई संघर्ष सफलतापूर्वक चला सकते हैं, और न संगठित जनान्दोलन का महत्व ही उन्हें विदित था। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद लोगों में जो भयंकर पस्ती और निगशा आई थी वह दिनों-दिन गहरी होती जाती थी। देश की सबसे बड़ी संख्या थी कांग्रेस, परन्तु वह भी केवल 'भिक्षां देहि' का मंत्र जपती थी। उसकी माँगो के पीछे कोई शक्ति न थी। विदेशी शासन जेठ. के मध्याह्न सूर्य की तरह तपता था। लाल पगड़' और गोरे चमड़े को देख लोगों के देवता कूच कर जाते थे। चारों ओर अंधकार ही था । रौलट कानून और पंजाब के मार्शल्ला के बाद शासकों की अकड़ और भी तेज हो चुकी थी। तुर्को के अंग-भंग को मुसलमान संसार रोकने में में असमर्थ था। हमारी न्यायतम मांगों पर भी हमारे पाका घृणा एवं अपमान की हँसो हँस देते थे और बस । तब तक हमने यही सीखा था कि श्रखबारों और सभाओं के द्वारा पढ़े-लिखे शहरी लोग ही कुछ भी कर सकते हैं। मगर उनसे भी कुछ होता जाता दीखता न था । जलियानवाला बाग के बाद हन्टर कमिटी को लीग-पोती ने जले पर नमक छिड़क दिया था । साहा देश किंकर्तव्य-विमूढ़ था ।
ठीक उस समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने नागपुर में १९२० के दिसम्बर में गांवों की ओर मुंह मोड़ा ओर शान्ति- पूर्ण सीधी लड़ाई का रास्ता पकड़ा। नेताओं ने कहा कि हम निहत्ये